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________________ -mum A RA . KE .... PARMARIKumaries जैन-भक्तिकान्यकी पृष्ठभूमि _ 'योग' शब्द 'युज' धातुसे बना है, और 'युज' धातु समाधि-अर्थमें आती है।' जल भरे घड़ेके समान निश्चल होकर, आत्मस्वरूपमें अवस्थित होनेको समाधि कहते हैं। साम्य, समाधि, स्वास्थ्य, योग, चित्त-निरोध और शुद्धोपयोग एकार्थवाची शब्द हैं। इसका अर्थ हुआ कि आत्मस्वरूपमें अवस्थित होना अर्थात् एकतान होना योग है । पातञ्जलिके योगसूत्रमें भी योग शब्द 'युज' धातुसे बना है, और वहाँ मस्तिष्कको सूक्ष्म-ब्रह्ममें एकाग्र कर देना ही योग माना गया है। योगमें एकतानता ही मुख्य है, फिर चाहे वह सूक्ष्म-ब्रह्ममें हो, अथवा शुद्ध आत्मस्वरूपमें। समाधि और ध्यानकी एकता प्रतिपादित की जा चुकी है, अतः योगीको ध्यानी भी कह सकते हैं। ऋषि, मुनि, यति, भिक्ष, तापस, संशित, व्रती, तपस्वी, संयमो, वर्णी और साधु भी योगीके ही पर्यायवाची शब्द हैं। योगि-भक्ति आचार्य कुन्दकुन्दने प्राकृत योगि-भक्तिमें योगियोंकी महिमाका विशद वर्णन किया है। उन्होंने योगियोंको प्रायः अनगार शब्दसे अभिहित किया है। गुणधर अनगारोंको वन्दना, उन्होंने 'अंजलिमुकुलितहस्त' होकर, हृदयसे की है। १. 'युज समाधी देखिए, धनञ्जयनाममाला : अमरकीर्तिके भाष्यसहित, पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी सम्पादित, मारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००७, पृष्ठ ३ । २. 'आत्मरूपे स्थीयते जलभृतघटवत् निश्चलेन भूयते स समाधिः' पं० आशाधर, जिनसहस्रनाम, स्वोपज्ञवृत्ति और श्रुतसागरी टीका सहित, पं० हीरालाल सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, फरवरी १९५४, ६।७२ की श्रुतसागरी टीका, पृ० १८२ । ३. 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' का भाष्य । देखिए, पातञ्जलयोगदर्शन : श्री भगीरथ मिश्र सम्पादित, लखनऊ विश्व विद्यालय, लखनऊ, १२, पृ० ५। ४. ऋषिमुनिर्यतिर्मिक्षुस्तापसः संशितो व्रती। तपस्वी संयमी योगी वर्णी साधुश्च पातु वः ॥ धनञ्जयनाममाला : अमरकीर्तिके माष्यसहित, पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००७, ३रा पद्य, पृष्ठ २। ५. थोस्सामि गुणधराणं अणयाराणं गुणेहि तच्चेहिं । अंजलिमउलियाहत्थो अमिवंदंतो सविमवेण ॥ दशभक्ति शोलापुर, १९२१ ई०, प्राचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृत योगि-भक्तिः पहली गाथा, पृ० १६४ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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