SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-मक्तिके भेद प्रकारके आचारको धारण करनेवाले मुनियोंको भी नमस्कार किया है।' उन्होंने कहा, “पांच प्रकारका आचार संसार-समुद्रसे पार करनेवाला तीर्थ है, उत्कृष्ट मंगलरूप है, उसको मैं नमस्कार करता हूँ।" चारित्र की महिमाका वर्णन करना, चारित्र-भक्ति ही है । आचार्य सोमदेवने संयम, दम और ध्यानादिसे युक्त चारित्रको नमस्कार करते हुए लिखा है कि चारित्र तो 'सम्यवत्वरत्नाकर' है, उसके बिना मुनियोंके बड़े-बड़े तप भी व्यर्थ है। एक-दूसरे स्थानपर भाव-विभोर होते हुए उन्होंने लिखा, "मनोकामनाओंको पूरा करने के लिए चारित्र चिन्तामणिके समान है, सौन्दर्य तथा सौभाग्यकी निधि है, घरकी वृद्धि के लिए लक्ष्मी है और बल तथा आरोग्य देने में पूर्ण समर्थ है। मोक्षके लिए किये गये पञ्चात्मक चरित्रको मैं नमस्कार करता हूँ। उससे विविध स्वर्गापवर्ग प्राप्त होते हैं।" ४. योगि-भक्ति 'योगि'की व्युत्पत्ति और परिभाषा 'योगो ध्यानसामग्री अष्टाङ्गानि विद्यन्ते यस्य स योगी,' अर्थात् अष्टांग योगको धारण करनेवाला योगी कहलाता है। १. दशभक्त्यादिसंग्रह : श्रीसिद्धसेन गोयलीय-सम्पादित, हिन्दी-अनूदित, सलाल, साबरकाँठा, गुजरात, वी० नि० सं० २४८१, श्लोक २-८, पृ० १४०-१४७ । २. 'माचारं सहपञ्चभेदमुदितं तीर्थ परं मंगलम् ।' देखिए वही : ८वें श्लोककी पहली पंक्ति, पृ० १४७ । ३. ज्ञानं दुर्मगदेहमण्डनमिव स्यात् स्वस्य खेदावहं धत्ते साधु न तत्फल-श्रियमयं सम्यक्त्वरत्नाङ्करः । कामं देव यदन्तरेण विफलास्तास्तास्तपोभूमयस्तस्मै स्वच्चरिताय संयमदमध्यानादिधाम्ने नमः॥ Prof K. K. Handiqui, Yasastilak and Indian Culture, Jainsamskriti Samrakshaka Sangh. Sholapur, 1949, P. 309 ४. यच्चिन्तामणिरीप्सितेषु वसति: सौरूप्यसौभाग्ययोः श्रीपाणिग्रहकौतुकं कुलबलारोग्यागमे संगमः । यत्पूर्वश्चरितं समाधिनिधिमिर्मोक्षाय पञ्चात्मकं तच्चारित्रमहं नमामि विविधं स्वर्गापवर्गाप्तये ॥ देखिए वही : पृ० ३०१ । ५. पं० भाशावर, जिनसहस्रनाम : स्वोपज्ञवृत्ति और श्रुतसागरी टीका सहित, पं० हीरालाल सम्पादित, हिन्दी-अनूदित, ६।७२ की स्वोपज्ञवृत्ति, पृ०९० ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy