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________________ जैन-मक्तिके भेद श्री श्रुतसागरसूरिने तत्त्वार्थवृत्तिमें इसी परिभाषाका समर्थन किया है। चारित्र और तत्त्वार्थश्रद्धान ___आचार्य कुन्दकुन्दने चारित्र-पाहुडमें लिखा है, "जो जाने सो ज्ञान और जो देखे सो दर्शन, तथा दोनोंके समायोगको चारित्र कहते है।" यहाँ दर्शनका अर्थ सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन, सर्वज्ञभाषित तत्त्वार्थके श्रद्धानको कहते हैं। श्रद्धान; चारित्र ही है, इसका समर्थन पं० जयचन्द छावड़ाने, आचार्य कुन्दकुन्दके चारित्र पाहुडकी पांचवीं गाथाका अनुवाद करते हुए किया है। तत्त्वार्थके श्रद्धानमें मनको शुभ क्रिया करनी पड़ती है, अतः वह सम्यक्चारित्र ही है। आचार्य कुन्दकुन्दने तत्वार्थश्रद्धानकी महत्ता बताते हुए भावपाहडमें लिखा है, "अरिहंतको वाणीमें सच्चे श्रद्धानके बिना कठोरसे-कठोर तप और संयम व्यर्थ है।"" जैन शास्त्रोंके अनुसार केवल कर्म-काण्ड सम्यक्चारित्र नहीं है, उसके पीछे सच्चा भाव होना ही चाहिए। इसे ही आभ्यन्तर चरित्र' कहते हैं । आचार्य अकलंकदेव १. 'संसारहेतुभूतक्रियानिवृत्त्युद्यतस्य तत्त्वज्ञानवतः पुरुषस्य कर्मादानकारण क्रियोपरमणमज्ञानपूर्वकाचरणरहितं सम्यक्चारित्रम्'। आचार्य श्रुतसागर सूरि, तत्त्वार्थवृत्ति : पं० महेन्द्र कुमार सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, मार्च १९४९, ११की वृत्ति, पृ० ४ । २. जं जाणइ तं गाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं । णाणस्स पिच्छयस्स य समवण्णा होइ चारित्तं ॥ आचार्य कुन्दकुन्द, अष्टपाहुड : श्री पाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला, मारोठ, मारवाड़, चरित्रपाहुड : तीसरी गाथा । ३. 'चारित्र दो प्रकारका है, सर्वज्ञमाषित तत्त्वार्थका शुद्ध श्रद्धान करना प्रथम चारित्र है, और सर्वज्ञको आज्ञाके अनुसार संयम अर्थात् व्रतादिक धारण करना दूसरा चारित्र है। देखिए वही : पाँचवीं गाथाका भावार्थ । ४. भावरहिओ ण सिज्मइ जइ वितवंचरह कोडि-कोडीओ। जम्मंतराइ बहुसो लंवियहच्छो गलियवच्छो । आचार्य कुन्दकुन्द, अष्टपाहुड : श्री पाटनी दि. जैन ग्रन्थमाला, मारोठ, मारवाड़, भावपाहुड : ४थी गाथा ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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