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________________ V ..............." .. जैन-मक्तिकाध्यकी पृष्ठभूमि इस भांति जैनाचार्योने स्पष्ट स्वीकार किया है, "श्रुतकी अर्चना, पूजा, वन्दना और नमस्कार करनेसे सब दुखों और कर्मोका क्षय हो जाता है। तथा बोधिलाभ, सुगतिगमन, समाधिमरण और जिणगुणसम्पत्ति भी प्राप्त होती हैं।'' ३. चारित्र-भक्ति 'चारित्र'की व्युत्पत्ति ____ 'चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम् अर्थात् जो आचरण करता है, जिसके द्वारा आचरण किया जाये या आचरण करना मात्र चारित्र कहलाता है। इसका तात्पर्य हुआ कि आचरणका ही दूसरा नाम चारित्र है। चारित्र अच्छा और बुरा दो प्रकारका होता है । चारित्र-भक्तिका सम्बन्ध अच्छे चारित्रसे है, जैन-साहित्यमें उसे ही सम्यक्चारित्र कहा गया है । सम्यक्चारित्रकी परिभाषा आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है, "संसार बन्धके कारणोंको दूर करनेकी अभिलाषा करनेवाले ज्ञानी पुरुष, कर्मोकी निमित्तभूत क्रियासे विरत हो जाते हैं, इसीको सम्यक्चारित्र कहते हैं। चारित्र अज्ञानपूर्वक न हो, अतः सम्यक् विशेषण जोड़ा गया है ।" आचार्य भट्टाकलंकने तत्त्वार्थवात्तिकमें और १. अंगोवंगपइण्णए पाहुडयपरियम्मसत्तपढमाणियोगपुवगयचूलिया चेव सुत्तत्थयथुइ धम्मकहाइयं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुखक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं जिणपुणसंपत्ति होउ मज्झं। दशभक्ति : शोलापुर, सन् १९२१ ई०, आचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृत श्रुत भक्तिः : पृष्ठ १२७ । २. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २०१२, ११ का भाष्य, पृष्ठ ६ । ३. 'संसारकारणनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमः सम्यकचारित्रम्' देखिए वही : १११, पृ० ५। ४. 'संसारकारणविनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतो बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशे घोपरमः सम्यक्चारित्रम् । प्राचार्य भट्टाकलंक, सस्वार्थवार्तिक : भाग १, पं० महेन्द्रकुमार सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, जनवरी १९५३, १११ का वार्तिक, पृ० ४ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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