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________________ जैन - भक्तिकाव्यको पृष्ठभूमि तथा अनन्त पदार्थोंउन्होंने मतिज्ञान 3 है | श्रुतज्ञानको नमस्कार करते हुए उन्होंने लिखा है, "जिनेन्द्र भगवान्‌के कहे गये, गणधरोंके द्वारा रचित, अंग और अंग बाह्यसहित को विषय करनेवाले श्रुतज्ञानको मैं नमस्कार करता हूँ ।' और अवधिज्ञानकी भी वन्दना की है। उन्हें विश्वास है कि पाँच ज्ञानोंकी स्तुति करनेसे अविनाशी सुख और अतीन्द्रिय ज्ञान शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है । आचार्य कुन्दकुन्दने प्राकृत श्रुतभक्ति में श्रुतज्ञानकी स्तुति करते हुए लिखा है, "अर्हन्तके द्वारा कहे गये और गणधरोंके द्वारा गूँथे गये, ऐसे महासागरप्रमाण श्रुतज्ञानको मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ श्रुतके अंगों की भक्ति ८२ आचार्य पूज्यपादने श्रुतके बारह अंगोंकी स्तुति की है । उन्होंने बारहवें अंग दृष्टिवादको भक्ति में लिखा है, “परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिकासहित पाँच प्रकारके दृष्टिवाद अंगकी में स्तुति करता हूँ ।" आचार्य कुन्दकुन्दने प्राकृत श्रुतभक्ति के प्रारम्भमें ही सिद्धोंको नमस्कार करके श्रुतके सभी १. क्षायिकमनन्तमेकं त्रिकालसर्वार्थयुगपदवमासम् । सकलसुखधाम सततं वन्देऽहं केवलज्ञानम् ॥ देखिए वही : २९वाँ श्लोक, पृ० १३६ । २. श्रुतमपि जिनवर विहितं गणधररचितं द्वचनेकभेदस्थम् । अङ्गाङ्गबाह्यभावितमनन्तविषयं नमस्यामि ॥ देखिए वही : ४था श्लोक, पृ० ११८ । ३. एवमभिष्टुवतो मे ज्ञानानि समस्तलोकचक्षू ंषि । लघु भवताज्ज्ञानर्द्धिज्ञानफलं सौख्यमच्यवनम् ॥ देखिए वही : ३०वाँ श्लोक, पृ० १३७ । ४. अरहन्तमासियत्थं गणहरदेवेहिं गंधियं सम्मं पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवहिं सिरसा ॥ दशभक्ति : शोलापुर, १९२१ ई०, आचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृतश्रुतमक्ति : पृ० १२६ - १२७ । परिकर्म च सूत्रं च स्तौमि प्रथमानुयोगपूर्वगते । सार्द्धं चूलिकयाsपि च पञ्चविधं दृष्टिवादं च ।। देखिए वही : आचार्य पूज्यवाद, संस्कृत श्रुतभक्ति: ९वाँ श्लोक पृ०९२ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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