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________________ 3 2 .. जैन-मतिके भेद शास्त्रोंकी भी प्रतिष्ठा होने लगी थी। मध्यकालमें तो तारणपन्थ नामके एक ऐसे आम्नायने जन्म लिया, जो अर्हन्तको मूर्तिको न पूजकर, शास्त्रोंकी पूजामें ही विश्वास करता था। . सच्छास्त्रोंके अध्ययनको बात करते हुए एक बार, श्रीमद्राजचन्द्रने कहा था, "मैं ज्ञान हूँ, मैं ब्रह्म हूँ, ऐसा मान लेनेसे, ऐसा चिल्लानेसे कोई तद्रूप नहीं हो सकता । तद्रूप होनेके लिए सच्छास्त्र आदिका सेवन करना चाहिए।" ४-ज्ञानपूजन __भावश्रुतको ज्ञान कहते हैं । द्रव्यश्रुत भी ज्ञान है, किन्तु वह शास्त्रीय-अध्ययन तक ही सीमित है। भावश्रुतमें परोक्ष और प्रत्यक्ष दोनों ही प्रकारके ज्ञान शामिल हैं। इसी कारण श्रुतभक्तिमें पाँच ज्ञानोंकी भी भक्ति की गयी है । भक्तिसे ज्ञान प्राप्त होता है। आचार्य कुन्दकुन्दने लिखा है कि विनयके बिना सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता। प्रथम अध्यायमें विनय और भक्तिका सम्बन्ध दिखाया जा आचार्य पूज्यपादने दूसरोंके मनमें स्थित अर्थको जाननेवाले मनःपर्ययज्ञान' और त्रिकालवर्ती पदार्थोंको एक साथ जाननेवाले केवलज्ञानकी स्तुति की १. अहवा जिणागमं पुत्थएसु सम्मं लिहाविऊण तओ। सुहतिहि-लग्ग-मुहुत्ते प्रारंभो होइ कायव्वो ॥ श्राचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दिश्रावकाचार : पं० हीरालाल सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, अप्रैल १९५२, ३९२ वी गाथा, पृ० १२३ । श्रीमद्राजचन्द्र, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन सम्पादित, श्रीपरमश्रुतप्रभावक मण्डल, बम्बई, पृ० ७४२ । ३. देखिए, दशभक्ति : शोलापुर, १९२१ ई०, प्राचार्य पूज्यपाद, संस्कृत श्रुतमति : मावरूप श्रुतज्ञानका वर्णन, पृ० ७८ । ४. दंसणणाणावरणं मोहवियं अंतराइयं कम्मं । णिवइ भविय जीवो सम्मं जिणमावणाजुत्तो ॥ आचार्य कुन्दकुन्द, अष्टपाहुड : श्री पाटनी दि. जैन ग्रन्थमाला, मारौठ ( मारवाड़), भावपाहुड : १४९वीं गाथा । ५. परमनसि स्थितमर्थ मनसा परिविद्य मन्त्रिमहितगुणम् । ऋजुविपुलमतिविकल्पं स्तौमि मनःपर्ययज्ञानम् ॥ दशभक्त्यादिसंग्रह : श्री सिद्धसेन संम्पादित, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, आचार्यपूज्यपाद, श्रुतमति : २८वाँ श्लोक, पृ० १३५। . . ११
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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