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________________ खण्ड] * भगवान महावीरके बादका जैन-इतिहास * ५७ का यह कथन व मन्तव्य है कि इस समय भारतवर्षके तमाम धर्मावलम्बियोंको बजाय आपसमें द्वेष और झगड़ा करनेके दूध और शक्करके समान मिल जाना चाहिये। इससे इनका यह मतलब नहीं कि सबको अपने धर्मको छोड़ देना चाहिये । सबोंको अपने धर्मकी मान्यता करते हुए एक दूसरेके साथ प्रेम-पूर्वक रहना चाहिये। उसी अवस्थामें मनुष्य मात्रकी और मुख्यतया भारतवर्षकी हर प्रकारकी उन्नति हो सकती है। लेकिन क्या कारण है कि आज महावीर भगवान्के श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरहपंथी आदि अनेक पुत्र आपसमें प्रेम-पूर्वक मिलकर नहीं रह सकते ? बजाय प्रेम-पूर्वक मिलकर रहने और जैनधर्मकी उन्नति करनेके हम यह देखते हैं कि आज हमारे श्वेताम्बर और दिगम्बर मन्दिर और मूर्तियोंके पीछे; स्थानकवासी और श्वेताम्बर स्थानक, मुखवत्रिका, मूर्तिपूजा आदिके पीछे; तेरहपंथी और स्थानकवासी जीवहिंसा रोकने या न रोकनेके सिद्धान्तपर; तथा दिगम्बर दिगम्बर; श्वेताम्बर श्वेताम्बर; स्थानकवासी स्थानकवासी आदि भी परस्परमें जितना कलह बढ़ा रही हैं, जितनी सम्पत्ति धूलमें मिला रही हैं, जितनी शक्तियाँ खर्च कर रही हैं, उनका कोई हिसाब नहीं है। एक दूसरेके खिलाफ पुस्तकें निकलवाना, पेम्फलेटें व नोटिसें छपवाना, पेपरोंमें एक दूसरेके खण्डन सम्बन्धी और द्वेषयुक्त लेख निकलवाना व कोर्टोंमें एक दूसरेके खिलाफ
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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