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________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम - बनाकर झगड़ने लगे। यह उदार जैन समुदाय अनेकान्तवाद और अपेक्षावादके महान् सिद्धान्तको भूलकर दोनों आपसमें फाग खेलने लगे। एक दूसरेको परास्त करनेकेलिये दोनोंने वर्द्धमानका नाम दे-देकर कुछ जुदा-जुदा शास्त्रोंकी भी रचना कर ली। अब लोग जैन धर्मके उदार सिद्धान्तोंको भूलकर उन्हीं तत्त्वों को पकड़कर बैठ गये, जहाँपर दोनोंका मत-भेद होता था। एक साधु यदि नग्न रहकर अपनी तपश्चर्याको उग्र करने का प्रयत्न करता तो श्वेताम्बरियोंकी दृष्टिमें वह मुक्तिका पात्र ही नहीं हो सकता; क्योंकि वह तो जिनकल्पी है और जिनकल्पी को मोक्ष है ही नहीं। इसी प्रकार यदि एक साधु एक अधोवस्त्र पहनकर तपश्चर्या करता है तो दिगम्बरियोंकी दृष्टिसे वह मुक्ति का हक्न खो बैठता है; क्योंकि वह परिग्रही है और परिग्रहको छोड़े बिना मुक्ति हो ही नहीं सकती। इस प्रकार अनेकान्तवादका समर्थन करनेवाले ये लोग सब महान् तत्त्वोंको भूलकर स्वयम् एकान्तवादी होगये। पतन अपनी इतनी ही सीमापर जाकर न रह गया। स्वार्थका कीड़ा जब किसी छिद्रसे घुसा कि फिर वह अपना बहुत विस्तार कर लेता है। जैनसमाजके केवल यही दो टुकड़े होकर न रह गये, बल्कि आगे जाकर इन सम्प्रदायोंकी गिनती और भी बढ़ने लगी। स्वेताम्बरियोंमें भी परस्पर मतभेद होने लगा,
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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