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________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * प्रथम इसके बाद उन्होंने धर्म-उपदेश देना प्रारम्भ किया और चतुर्विध संघकी स्थापना की। इससे वे 'चौबीसवें तीर्थङ्कर' कहलाये। उन्होंने अपने उपदेशमें कहा कि हिंसासे भरे हुए होमहवन आदि क्रियाकाण्डसे सच्चा धर्म नहीं होता । धर्म तो केवल आत्म-शुद्धिसे ही होता है । जो सद्गुणी हैं, वे ब्राह्मण हैं । जो दुराचारी हैं, वे शूद्र हैं। धर्मका ठेका किसी मनुष्य-विशेषको नहीं है। प्रत्येक मनुष्यको धर्म करनेका अधिकार है। चाहे वह ब्राह्मण हो, चाहे चाण्डाल; स्त्री हो या पुरुष । अहिंसा ही परम धर्म है । जिसकी आत्माका पूर्ण विकास हो जाता है, वही परमात्मा बन जाता है। महावीर भगवान्के वैशाली-पति चेड़ा महाराज, राजगृह-पति श्रेणिक और उनके पुत्र कौणिक आदि राजा, आनन्द तथा कामदेव आदि बड़े सेठ साहूकार, शकडाल तथा ढक आदि कुम्हार आदि बहुतसे शिष्य थे। महावीर भगवान्ने अहिंसाका रहस्य समझाया और संसारको ज्ञान और सच्चे त्यागका भारतवर्ष में फिर प्रकाश दिखा दिया । भगवान महावीर विचरते-विचरते पावापुरीमें पधारे । वहाँ बहुतसे राजा लोग व गृहस्थ भगवान्के दर्शनोंको आये । उन्होंने अपनी अमृत वाणीसे उपदेश दिया । भगवान्का यह अन्तिम उपदेश था। बादमें वे कातिक बदी १५ वींकी रातको निर्वाणपदको प्राप्त हुए । इस प्रकार संसारका सूर्यास्त हुश्रा । इस समय भगवान्की उम्र ७२ वर्षकी थी। महावीर भगवान् ३० वर्ष गृहस्थ अवस्थामें रहे और ४२ साधु अवस्थामें । कुछ समय पूर्व अन्य
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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