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________________ खण्ड] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * ३५ तप करना प्रारम्भ कर दिया अर्थात् किसी समय दो उपवास* किसी समय चार उपवास, कभी पन्द्रह, कभी बीस उपवास कर डालते थे । यहीं तक नहीं, उन्होंने छह-छह महीनेके कई उपवास किये । इन उपवासोंके समय श्रीवर्धमानस्वामी एकान्त स्थान जैसे-जंगल, गुफा आदिमें ध्यान लगाकर खड़े रहते थे। दंश, मंशक, बिच्छू, भ्रमर आदिके उपसर्गोको बड़ी शान्तिसे सहते थे। सर्पके काटनेके उपसर्गको, ग्वाले द्वारा कानमें ढूँसी हुई ठुइओंकी पीड़ाको, कुत्तों द्वारा काटी जाने और नाना प्रकारकी दूसरी बड़ी-बड़ी आपत्तियोंको बड़ी शान्ति और धैर्य के साथ सहन किया था। इसीसे उनका नाम 'महावीर' पड़ा। भगवान् महावीरने साढ़े बारह वर्षमें सिर्फ साढ़े तीन वर्ष आहार ग्रहण किया। शेष समयको तपस्यामें व्यतीत किया। बादमें उन्होंने शुक्ल ध्यान ध्याते हुये शुभ घड़ीमें केवलज्ञानकी प्राप्ति की। *लोग समझते हैं कि उपवास उसे कहते हैं कि जिसमें खाने-पीनेका कोई पदार्थ नहीं खाया जाता है, अगर ज़रूरत होती है तो सिर्फ गर्म पानी पी लिया जाता है। लेकिन उपवासका यह अर्थ नहीं है। उपवासका अर्थ है "कषायविषयाहार-त्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः,शेष लङ्घनकं विदुः ॥" अर्थात्-कषाय, विषय और अाहारका त्याग जिस व्रतमें किया जाय, उसे 'उपवास' समझना चाहिये, नहीं तो केवल आहार-पानीका त्याग तो 'लङ्घन' है, उपवास नहीं ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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