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________________ खण्ड * ध्यानका स्वरूप ३१६ एकाग्रताके फल हैं। मनकी एकाग्रताके बिना संसारका और परमार्थका कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। मनकी एकाग्रतासेध्यानसे एक नृकोट परमात्मा तक बन सकता है। ऐसे लोकातिशायी ध्यान और ध्यानी केलिये हमारा शतशः नमस्कार है। व्यवहारमें भी ध्यानसे अनेक लाभ होते हैं। यथा:--धीमारी का दूर हो जाना या कम पड़ जाना; स्मरण शक्तिका बढ़ जाना; शारीरिक बलका बढ़ जाना: बुद्धिका निर्मल हो जाना; परिणामों का कोमल हो जाना, प्रकृति में सौजन्य, सौम्य आदि गुणोंका आविभाव हो जाना. इत्यादि । विशेष किमी भी विषय के भेद जो होते हैं, वे किसी दृष्टि-विशेषकी वजह से होते हैं। श्रात, रौद्र. धम और शुक्ल, ये चार ध्यानके भंद किसी और दृष्टिस हैं। ध्यानकं शुभ और अशुभ, ये दो भेद किमी और दृष्टिस हैं। शक्तध्यानकी बात छोड़ दीजिए । वह अपने अनुभवका विषय नहीं है। वह मुनियों की चीज हैं। लेकिन शंप तीन ध्यानोंका विषय गृहस्थमात्रके अनुभवका विषय है। उनके प्रत्यकके अलग-अलग भेद हम पूर्व में बतला प्राय हैं। वे भेद भी किसी-न-किसी भिन्न-भिन्न दृष्टि से किये हुए हैं। ___उसी प्रकार एक अन्य दृष्टिसे भी ध्यानके भेद होते हैं। वह दृष्टि है समयकी। एक ध्यान ऐसा होता है जो अल्पकाल या
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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