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________________ खण्ड * ध्यानका स्वरूप ३०५ ध्यानका चित्त अर्थात् मनसे मुख्य सम्बन्ध है । चित्तके ज्ञानियोंने आठ दोष बताये हैं, जो निम्न प्रकार हैं। भव्य प्राणियों को इनसे अपने चित्तको बचाना अत्यन्त आवश्यक है । १-धार्मिक अनुष्टानमें ग्लानिका उत्पन्न होना। २-धार्मिक क्रिया करते हुए चित्तमें उद्वेगका बना रहना। ३-चित्तमें भ्रान्ति रहना अर्थात् एक कार्यके बदले दूसरा कार्य करने लगना। ४-मनका स्थिर न रहना अर्थात् चंचलता बनी रहना । ५-चालू कामको छोड़ कर दूसरे कामों में लगना । ६-सांसारिक कार्यो में ऐसे लीन हो जाना कि जिससे आगेपीछेकी सुध-बुध न रहे। -वर्तमानमें करने योग्य कार्यको छोड़ कर कालान्तरमें करने योग्य कायको करना। ८-प्रारम्भ किये हुये कार्यको छोड़ देना। अशुभ ध्यानमें तो चित्तकी प्रवृत्ति बिना प्रयत्न-स्वाभाविक रीतिसे होती है क्योंकि उसका आत्माके साथ अनादिकालसे सम्बन्ध है । परन्तु शुभ ध्यानमें प्रवृत्ति होना बहुत मुश्किल है। शुभ ध्यानमें प्रवेश करनेकेलिये प्रथम सम्यक्त्वकी आवश्यकता है। धर्मध्यानको गृहस्थ अथवा मुनि दोनों ध्या सकते हैं, पर शुक्लध्यानको केवल मुनि ही ध्या सकते हैं।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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