SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय करते हैं । इस प्रकारके कुकर्मोसे ये लोग नीच और अशुभ कर्मोंका बन्ध करते हैं। जिनको भोगते-भोगते उनका पीछा नहीं छूटेगा। दूसरे अशुभ कर्मोका नाश तो तपद्वारा किया जा सकता है, पर चोरीका पाप बिना भोगे नहीं छूटता है। ___ जो ज्ञानी हैं, सजन हैं, जिन्हें अपना मनुष्य जन्म सफल बनाना है, वे एक तिनका भी बिना किसीके दिये ( अदत्तका ) ग्रहण नहीं करते । जिस प्रकार किसी रोगीका कुपथ्य देनसे वह बुरी अवधाको प्राप्त करता है, उसी प्रकार किञ्चित् मात्र भी अदत्त ग्रहण करनेसे जीव दोपके भागी बन जाते हैं। जिसके कारण अात्माको एक बुरी अवस्था में जाना पड़ता है। इस कारण जो भव्य प्राणी अपनेको अदत्तादान अर्थान चोरीसे बचाना चाहते हैं, उनको उपरोक्त अशुभ कर्मोम सदा मन, वचन और कायसे बचे रहना चाहिये । चौथा वन ब्रह्मचर्यागुत्रन है। इसका अर्थ है-यथाशनि ब्रह्मचयका पालन करना। ___इस व्रतके भी निम्नलिखित पाँच अती चार अथवा दुपण हैं, जो कि त्यागने योग्य हैं। (१) परविवादकरा-दूसरोका विवाह कराना । * “परविवाहकरणत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीनागमनानङ्गक्रीडाकामतीवाभिनिवेशाः" । -मास्वानि।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy