SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रखण्ड] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २२३ (३७) अन्तरङ्गमें वीतरागका ध्यान करनेसे ध्याता वीतराग हो जाता है। इस कारण समस्त अपध्यानोंको दूर कर शुम ध्यानका प्राश्रय ग्रहण करना चाहिये । स्थान, यान, अरण्य, जन, सुख या दुःख में मनको वीतरागपनेमें जोड़ रखना चाहिये, ताकि वह सदा उसीमें लीन रहे । (३८) इन्द्रियों का मालिक मन है । मनका मालिक तप है और तपका मालिक निरञ्जन है। मनुष्य के पास तीन शक्तियाँ हैंमन, वचन और काय ! या यों कहना चाहिये कि मन, वचन और कायका जो पुञ्ज है, वही मनुष्य है। हैं तो ये तीन शक्तियाँ अलग अलग, किन्तु काम करती हैं मिल कर । कहने को तो ये तीनों समान अधिकार रखती हैं, पर वास्तवमें परस्परमें इनका स्वामीसेवकका संबन्ध है। मन स्वामी है और वचन और काय सेवक । मनमें जैसे कुछ भी-अच्छे या बुरे विचार आते हैं, वचन और कायकी प्रवृत्ति वैसी ही होती है। मनुप्यके भले-बुरे बननेका कारण ही मन है--मनके विचार हैं। मनुष्य यदि सत्साहित्यका अवलोकन करंगा, साधु-सज्जन पुरुपोंके संसर्गमें आयेगा अर्थात् मनमें अच्छे विचार करेगा, तो वह अवश्य ही अच्छा बन जायगा। इसीलिये शास्त्रकारोंने एक जगह मनके विषयमें लिखा है "मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः"
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy