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________________ २०४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय रूप होना, उत्पत्ति वा 'उत्पाद' है। जैसे सोनेके कुण्डलोंका कड़े रूप होना, उत्पाद है और कुण्डल आकारका नष्ट होना, विनाश व 'व्यय' है । और पोलापन, भारीपन श्रादिका अपनी जातिको लिये हुए दोनों अवस्थामें मौजूद रहना, 'ध्रौव्य है। इसी प्रकार द्रव्य में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, ये तीनों गुण एक साथ निरन्तर रहते हैं । जिसमें ये तीनों गुण रहे, वही सत् अर्थात् द्रव्य है। ___ पदार्थके भाव वा गुणके नाश नहीं होनेको नित्यत्व कहते हैं। अग्निकी उष्णता गुणका बना रहना अग्निका नित्यत्व है। सवथा नित्य अर्थात् कूटस्थ कोई वस्तु नहीं है । सत्ताकी व द्रव्यत्वकी अपेक्षा नित्यत्व है और पर्यायकी अपेक्षा अनित्यत्व है। वस्तुओं में अनेक धर्म होते हैं। उनमेंस वक्ता जिस धर्मको प्रयोजनके वशसे प्रधान करके कहे, वह 'अर्पित' और जी प्रयोजन के बिना जिस धर्मको कहनेकी इच्छा नहीं करें, वह 'अनर्पित' है। इससे यह न समझ लेना चाहिये कि जो धर्म कहा नहीं गया, वह वस्तुमें है ही नहीं। नहीं, वह है जरूर, परन्तु उस समय उसके कहनेकी मुख्यता नहीं है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनेक गुणवाली है। जिस प्रकार एक ही पुरुषमें पिता, पुत्र, माई, मामा आदिके जो अनेक सम्बन्ध हैं, वे सब अपेक्षासे ही सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तुमें अनेक गुण अथवा धर्म मिन्न-भिन्न अपेक्षासे सिद्ध होते हैं।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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