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________________ * नवतत्त्व अधिकार # १६५ १ - संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरहित अर्थात् शुद्ध और यथार्थ तत्त्वों - पदार्थों के जाननेको 'सम्यग्ज्ञान' कहते हैं । २ - सम्यक् ज्ञानके द्वारा जाने हुए पदार्थों का जो श्रद्धानविश्वास करना है, उसे 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं । ३ - मिध्यात्व कषायादिक संसारकी कारणरूप क्रियाओं से विरक्त होने को 'सम्यक्चारित्र' कहते हैं । जिस प्रकार व्याधियुक्त रोगी औषधिका ज्ञान, श्रद्धान और उपचारका ठीक-ठीक पालन करे तभी वह रोगसे मुक्त होता है । एक बात की भी कमी होनेसे रोग नहीं जा सकता है । इसी प्रकार सम्यक ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र से मोक्षकी माप्ति होती है। अगर इनमें से एक बात की भी कमी हो तो मोक्ष पाना दुर्लभ है । बिना ज्ञानके सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, ज्ञानकी प्राप्ति बिना चारित्रकी प्राप्ति नहीं होती और चारित्रकी प्राप्ति बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । इस कारण प्रथम ज्ञान उपार्जन करने की परम आवश्यकता हैं । भव्य प्राणियोंको ज्ञानका आराधन करना चाहिये । क्योंकि ज्ञान पाप-रूपी तिमिरको नष्ट करनेके लिये सूर्य के समान है; मोक्ष-रूपी लक्ष्मीके निवास करनेके लिये कमलके समान है; कामरूपी सर्पको कीलने के लिये इस्ती के लिये सिंहके समान है; मन्त्र के समान है: माया रूपी व्यसन – आपदा - कष्ट-रूपी
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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