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________________ खण्ड * कर्म अधिकार * १४१ AAAAAAAA-naaaaana - ......-10-naanaana anaann .....nannamannar.n.....nnnnnnnn. nnnNA00- - प्रकार कुछ कर्म-दलोंमें शुभरस अधिक, कुछ कर्म-दलोंमें कम; कुछ कर्म-दलोंमें अशुभरस अधिक, कुछ कर्म-दलोंमें कम; इस तरह विविध प्रकारके अर्थात् तीब-तीव्रतर-तीव्रतम, मन्द-मन्दतरमन्दतम शुभ-अशुभ रसोंका कर्म-पुद्गलोंमें बन्धन अर्थात् उत्पन्न होना 'रसबन्ध' कहलाता है । शुभ कर्मों का रस ईख-द्राक्षादिके रसके सदृश मधुर हाता है, जिसके अनुभवसे जीव खुश होता है । अशुभ कर्मोंका रस नीव आदिके रसके सदृश कड़वा होता है, जिसके अनुभवसे जीव बुरी तरह घबड़ा उठता है । तीव्र-तीव्रतर आदिको समझनेकेलिये दृष्टान्तकी तौरपर ईख या नीवका चार-चार सेर रस लिया जाय । इस रसको स्वाभाविक रस कहना चाहिये । आँचके द्वारा औटा कर चार सेरकी जगह तीन सेर रस बच जाय तो उसे तीव्र कहना चाहिये, और प्रौटानेसे दो सेर रस बच जाय तो तीव्रतर कहना चाहिये और और औटा कर एक सेर रस बच जाय तो तीव्रतम कहना चाहिये । ईख या नीवका एक सेर स्वाभाविक रस लिया जाय । उसमें एक सेर पानीके मिलानेसे मन्द-रस बन जायगा, दो सेर पानीके मिलानेसे मन्दतर-रस बन जायगा और तीन सेर पानीके मिलानेसे मन्दतम-रस बन जायगा । निकाक्षित कर्म साधारणतया-एक न्यायसे कर्म दो प्रकारके होते हैं । एक •तो वे जो तपस्याके बलसे अथवा संयमकी शक्तिसे जल जाते हैं।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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