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________________ ६६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय चलता हुआ पथिक पेड़की छायामें रुक जाता है और बादमें चलने में हिचकिचाता है । उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय चलते हुए जीवको रोकती है। ४ – कालका नयेको पुराना बनानेका स्वभाव है । दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि जो द्रव्यों के परिवर्तनरूप - परिणामरूप में देखा जाता है, वह तो व्यवहार काल है और वर्त्तनालक्षण का धारक जो काल है, वह निश्चय काल है । ५ - जो जीव आदि द्रव्योंको अवकाश देनेवाला है, उसको आकाश कहते हैं। वह लोकाकाश और अलोकाकाश, इन दो भेदोंसे दो प्रकारका है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गल और जीव ये पाँचों द्रव्य जितने आकाशमें हैं, वह तो लोकाकाश है और उस लोकाकाशके आगे यानी परे अलोकाकाश है। नोट- उपरोक्त जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा आकाश - ये पाँचों द्रव्य विद्यमान हैं, इसलिये शास्त्रकारोंने इनको 'अति' ऐसा कहा है । और यह कायके समान बहु प्रदेशों को धारण करते हैं; इसलिये इनको 'काय' कहते हैं । अस्ति तथा काय रूप होनेसे इन पाँचों को “पञ्चास्तिकाय " कहते हैं । जीव, धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय द्रव्यमें असंख्यात प्रदेश हैं और आकाश में अनन्त हैं। मूर्त्त ( पुद्गल ) में संख्यात,
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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