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________________ ७४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम मालूम होनेपर भी जिसके प्रान्तयं परिणाम शुद्ध रहते हैं, वह हिंसा नहीं कहलाती । इसके विपरीत जिसका मन शुद्ध अथवा संयमित नहीं है, जो विषय तथा कषायसे लिप्त है, वह बाह्य स्वरूपमें अहिंसक दिखाई देनेपर भी हिंसक है। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि जिसका मन दुष्ट भावोंसे भरा हुआ है, वह यदि कायिक रूपसे हिंसा नहीं करता है, तो भी हिंसक ही है। अनकरीब प्रत्येक समझदार मनुष्य यह जानता है कि अहिंसा और क्षमा दोनों वस्तुएँ बहुत ही उज्ज्वल एवं मनुष्य जातिको उन्नतिक पथपर ले जानेवाली हैं। यदि इन दोनों का आदर्श रूप संसारमें प्रचलित हो जाय तो संसारसं आज ही युद्ध, रक्तपात और जीवन-कलहके दृश्य मिट जॉय और शान्तिका राज्य हो जाय । पर यदि कोई व्यक्ति इस अाशासे प्रयत्न करे कि समस्त संसारमें क्षमा और शान्तिका साम्राज्य होजाय तो यह असम्भव है; क्योकि समस्त समाज इन तत्त्वोंको एकान्तरूपसे स्वीकार नहीं कर सकती । प्रकृतिने मनुष्य-स्वभावकी रचना ही कुछ ऐसे ढङ्गसे की है कि जिससे वह शुद्ध श्रादर्शको ग्रहण करनेमें असमर्थ रहता है। मनुप्य प्रकृतिकी बनावट ही पाप और पुण्य, गुण और दोष एवं प्रकाश और अन्धकारके मिश्रण से की गई है। चाहे आप इसे प्रकृति कहें, चाहे कर्म, पर एक तत्त्व ऐसा मनुष्य-स्वभावमें मिश्रित है कि जिससे उसके अन्तर्गत उत्साह के साथ प्रमादका, क्षमाके साथ क्रोधका, बन्धुत्वके साथ
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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