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________________ [७] भरत महाराज का वैराग्य घर में रहकर भी बहुत ही बढ़ा चढ़ा हो चुका था। परन्तु उन्होंने जब तक घर छोड़ कर वन में जाकर वख-त्याग नहीं किया, तब तक केवलझान का साधक संयम भाव उनके जागृत नहीं हो पाया। वख-त्याग करते ही झटपट संयम की प्राति हो गई और अन्तर्मुहूर्त में ही उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। वैराय की पराकाष्ठा होने पर भी भरत महाराज को घर में ही सवस्त्र अवस्था में के वलज्ञान क्यों नहीं हुआ ? इसका उत्तर यही है कि इच्छापूर्वक वस्र ग्रहण होने से ममत्वभाव का पूर्ण त्याग तब तक नहीं हो सकता था। और की तो बात ही क्या ? तीर्थकर भगवान भी वैराग्य भावना भाते हैं परन्तु वे जब घर छोड़कर वनमें जाकर वस्त्र-त्याग करते हैं तभी उनके छठा गुणस्थान-संयम प्राप्ति और मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होता है। क्योंकि मनः पर्यय ज्ञान संयम के बिना नहीं होता है और संयम छठे गुणस्थान के बिना नहीं होता है और छठा गुणस्थान वखत्याग किये बिना नहीं होता है। यह कथन गुणस्थान क्रमकी अपेक्षा से है, भावों की विशुद्धि की अपेक्षा से पहले सातवां, गुणस्थान होता है। इससे भली भांति सिद्ध है कि वस्त्रत्याग में ही संयम की प्राप्ति हो सकती है। अन्यथा नहीं। दिगम्बर जैन धर्म में जहां तक एक कौपीन (लंगोटी) मात्र भी ग्रहण की जाती है वहांतक भी वीतराग मुनिपद नहीं,
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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