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________________ २२ महावीर के सिद्धांत गरिमा महातीर्थ का राजमार्ग ( Royal Road) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र (Right Faith, Right knowledge and Right Conduct ) रूप अपूर्व साधन द्वारा पद्धतिसर दर्शाया इसलिये वे तीर्थंकर कहलाये । संसार में तीर्थंकर पद सर्वोत्कृष्ट, सर्वोपरि और सर्वपूज्य होने से उस काल में १. भौतिकवादी अजित केशकम्बली, २. नियतिवादी मंखलीपुत्र गोशालिक, ३. अक्रियावादी पूर्णकश्यप, ४. नित्य-पदार्थवादी प्रकुधकात्यायन, ५. क्षणिकवादी गौतम बुद्ध, और ६. संशयवादी संजय - बेलट्ठीपुत्त आदि भिन्न भिन्न धर्मों के संस्थापक और संचालक अपने आप को तीर्थंकर कहलाने में उत्सुकता पूर्वक प्रतिस्पर्धा की दौड़धूप में व्यस्त थे। अर्थात् उस समय मत प्रतिस्पर्धा (Religious rivaey) की दौड़ा-दौड़ थी। जैसे कि आज (Power and Popllarity) सत्ता और श्लाघा के लिये मच रही है। परन्तु कहावत है कि (All glitters is not gold ) पीला सो सोना नहीं। कहा भी है कि- "साधवो न हिं सर्वत्र चंदनं न वने वने । " तात्पर्य यह है कि श्रुति, युक्ति और अनुभूति द्वारा सुझ और विज्ञजन (People of culture and common sence) केलिये सच्च और झूठ का निर्णय करना कोई कठिन विषय नहीं था और वैसे तो प्रभु महावीर के परम पवित्र प्रवचन का आधार मनः कल्पना और अनुमान की भूमि पर तो था ही नहीं । परन्तु उन के प्रवचनों में लोकालोक के मूलभूत ब्रव्य-गुण- पर्याय के त्रिकालवर्ती भावों का दिग्दर्शन था। अथवा आधुनिक परिभाषा में कहा जाय तो उसमें विराट विश्व या अखिल ब्रह्माण्ड (whole cosmos ) की विधि विहित घटनाएं (Natural phemomena) उनके द्वारा होती हुई व्यवस्था (organization) विधि का विधान और नियम (Low and order) का प्रतिपादन और प्रकाशन था और महातत्त्वभूत पदार्थों (substance order) का प्रतिपादन और प्रकाशन था। और महान तत्वभूत पदार्थों (Substance) के स्वभाव- - विभाव की चित्र-विचित्र प्रक्रियामय चराचर विश्व ( Universe) की अखंड नियमबद्ध रचनात्मक वैज्ञानिक ढंग (Scientific and systematic way) से विवेद कुशल व्यवस्था हो रही है। उस नैसर्गिक महासत्ता (The Government of Nature) के महाशासन का मूलाधार ( Fulerum) रूप उत्पाद व्यय ध्रौव्य का तात्विक विवेचन था । आधुनिक महान् विज्ञानवेत्ता (Advanced Scientists) मेलर - व्हाईटहैड और कोल्डिंग आदि जितने प्रमाण में विश्व रचना सम्बन्धी
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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