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________________ महावीर के सिद्धांत गरिमा २० निकर्ष - च्छेदस्तापेभ्यः सुवर्षमिव पण्डितैः परीक्ष्य-मिवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात् ।।१।। अर्थात् जैसे सोने की परीक्षा करने केलिये कसौटी, छेदन और तपन करना बहुत जरूरी है। वैसे ही हे भिक्षुओ ! तुम भी मेरे वचन को मात्र मेरी भक्तिवश नहीं अपितु परीक्षा करके मानो । प्रमाण, नय, निक्षेप और लक्षण ये तत्व परीक्षा के अमूल्य साधन हैं। इनका उपयोग यथार्थ रूप से करने केलिये मानव मात्र को प्रज्ञा और मेधा का विकास करना बहुत जरूरी है। क्योंकि मानवमेधावी और प्रज्ञा-प्रौढ़ है। पशुओं की भांति प्रज्ञामृढ़ नहीं है। तथा सब प्राणियों से मानव को विशेष प्रकार की नैसर्गिक सुविधाएं प्राप्त हैं। इस प्रज्ञा तथा मेधा के विकास द्वार को खोलकर यदि हित साधक नहीं तो पशु जन्म से मनुष्य जन्म की कोई विशेष महत्ता नहीं है । " बाबा वाक्यं प्रमाणं" मानने की मृढ़ता में मानव जन्म का कोई विशेष महत्व नहीं है। वस्तु को सम्यक् प्रकार से समझ कर हम संसार से घोरातिघोर दुःखों जैसे जन्म-मरण संताप, संयोग-वियोग, आधि-व्याधि का अन्त लाकर मुक्ति के शाश्वत सुखों को प्राप्त कर सकेंगे। मुक्ति ही हमारे जन्म-जन्मान्तरों की जीवन यात्रा का अंतिम विश्राम धाम है। किसी देश - राष्ट्र और जगत को जीत कर वश में करने वाला सच्चा विजेता नहीं है। किन्तु जिसने अपनी आत्मा को जीता है (Self conqueror) है वही सच्चा विजेता है। " 'प्रभु महावीर ने मुक्ति के सन्देश को ज़ोर-शोर से प्रजा को सुनाया। जिस के फलस्वरूप प्रजा को जीवन की बड़ी ही जागृति हुई तथा धर्म को वास्तविक महत्ता का दिग्दर्शन कराया। उसी के समर्थन में डा० रविन्द्रनाथ टैगोर ने सुन्दर शब्दों में कहा है कि भगवान महावीर ने डिंडिम नाद से उद्घोषणा की कि धर्म अनादि निधन है, स्वतः सिद्ध है। वह मानव कल्पणा का ढकोसला नहीं है। इन्द्रीय दमन और संयम के यथार्थ पालन में वास्तविक मुक्ति उपलब्ध हो सकती है । केवल बाह्य आडम्बरों से कभी मुक्ति सिद्ध नहीं होती । आत्मा का अन्तरावलोकन और अन्तरशुद्धि के सरल हेतु हैं। इस लिये दैहिक भ्रांति में मानव का मानव के प्रति घृणा भाव होना भूल है। इस अमूल्य उपदेशामृत का प्रभाव आर्यवर्त की प्रजा पर इतना सुन्दर पड़ा कि धार्मिक विधान के व्यासपीठ पर क्षत्रिय अधिष्ठित हो गये । तथा प्रजा उन की आज्ञा पालन करने लगी। इस तरह से भगवान महावीर का उत्क्रान्तिवाद बड़ा प्रशंसनीय - आदरणीय बना । इसी प्रकार उन का दर्शाया हुआ अहिंसावाद, कर्मवाद, तत्त्ववाद, स्याद्वाद, अपरिग्रहवाद, सृष्टिवाद, आत्मवाद, परमाणुवाद, विज्ञानवाद इत्यादि अनेक 1
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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