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________________ १४९ क्षत्रियकड मुनिसुव्रतस्वामी का चैत्यस्तूप ध्वंस करवाया। जिसका परिणाम यह हुआ कि वाज्जियों का पतन हुआ। मुनिसुव्रतस्वामी बैनधर्म के २०वें तीर्थकर थे। हम लिख आये हैं कि- "वस्सकार को बुद्ध ने कहा था कि वज्जि जब तक संगठित रहेंगे एवं वज्जि चैत्यों की रक्षा और सम्मान करते रहेंगे तब तक वज्जियों का पतन नहीं होगा। वैशाली पर विजय पाने केलिए अजातशत्रु ने वैशाली का ध्वंस किया और उसपर गधों से हल चलवाकर एकदम नष्ट-प्रष्ट करवा दिया। युद्ध में ई. पू. ५३२ में महाराजा चेटक पराजित हए एवं वैशाली ध्वंस बोर नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई। यहां की प्रजा को विवश होकर अन्यत्र जाना पड़ा। कुछ लिच्छिवी परिवार क्षत्रियकंड के राजा नन्दिवर्धन (सिद्धार्थ का पुत्र, भगवान महावीर का बड़ा भाई, महाराजा चेटक का जवाई) की शरण में गए और उनके राज्यान्तर्गत नगर बमाकर स्थाईरूप से आबाद हो गए। तब उस नगर का नाम (लच्छु +. वाल - लच्छआल) पड़ गया पश्चात अपभ्रंश होकर लच्छुआड़ प्रसिद्ध हो गया। यह नगर आज भी विद्यमान है जो इस घटना की याद दिलाता है। जैन-परम्पग के आर्यावर्त (भारत वर्ष) से सबसे बड़ी जनसंहारक लड़ाई महाराजा चेटक को अपने दोहित्र, मगधराज अजातशत्र (कोणिक) के साथ लड़नी पड़ी। अजातशत्र ने अपने पिता श्रेणिक की मृत्य के बाद राजगही से हटाकर अंग जनपद में चंपानगरी को अपनी राजधानी बनाया। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं तथा फट से इतने वैभवशाली महागणतंत्र राज्य का विनाश हुआ। महाभारत ने भी गणतंत्रों के विनाश केलिए ऐसे ही कारण बतलाये हैं। भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा था कि हे राजन! गणों तथा राजकुलों में शत्रुता की उत्पत्ति का मूल कारण है लोभ और ईर्ष्या-देष जब कोई गण या कुल लोभ के वशीनृत होता है तब दोनों के मेल से पारस्परिक विनाश होता है। वैशाली गणतंत्र के महाराजा चेटक तथा अंग-मगध के राजा अजातशत्रु दोनों भगवान महावीर के अनुयायी होने से बैन धर्मानुयायी थे। चेटक नाना था और अजातशत्रु दोहित्र था। युद्ध बारह वर्ष चालू रहते हुए बीच-बीच में भगवान महावीर के वैशाली में तथा गंडकी नदी के दूसरे तट पर वाणिज्यग्राम में चार चतुर्मास हुए। युद्ध समाप्ति के बाद ई.पू. ५३३ से ५२७ तक भगवान अपने निर्वाण तक फिर कभी वैशाली नहीं गए। इससे भी.स्पष्ट है कि ई. पू. ५३२ में वैशाली ध्वंस हो चुकी थी।
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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