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________________ (x) विजयसमुद्र सूरि जी से चतुर्विधसंघ समक्ष संपूर्ण ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण किया। सन् ईस्वी १९३९ में अपने विवाह से पहले अविवाहित अवस्था में ही आपने बड़ोदा में न्यायतीर्थ, न्याय विशारद मुनि न्यायविजय जी (काशीवाले आचार्य श्री विजयधर्म सूरि जी के शिष्य) से विधिसहित सम्यक्त्वमल बारहव्रत ग्रहण किये थे। भक्ष्य अनंतकाय का भी त्याग, रात्रि को तिविहार पच्छक्खाण, प्रातःकाल नवकारसी-पोरिसी का पच्चक्खाण, प्रतिदिन सामयिक, प्रतिक्रमण, देवदर्शन-पूजन, जाप करने को प्रतिज्ञाबद्ध हैं। आपपर द्वादशांग (गणिपिटक) की अधिष्टातृदेवी का महान् वरदान और न्यायांभोनिधि श्रीमद् विजयानन्द सूरि (आत्माराम) जी का सर्वदा आशीर्वाद प्राप्त रहता है। अजमेर, वीजापुर, राजकोट, आजिमगंज (मुर्शिदाबाद), कलकत्ता, गुजरांवाला, मद्रास, अंबाला, दिल्ली आदि अनेक स्थानों के अनेक व्यक्ति एवं साधु-साध्वियां आप के ज्ञान व शिक्षा से लाभ उठा चुके हैं। धर्मसंबंधी शंकाओं का समाधान करने की आगम और तर्क युक्त समन्वय की शैली जिज्ञासुओं को मंत्रमुग्ध किये बिना नहीं रह सकती। जैनसमाज का गौरव है कि उसे ऐसे सच्चरित्र-ज्ञान-सम्यग्दृष्टि सम्पन्न विद्वान की उपलब्धि हुई है। कृषगात्र और साधारण सी वेषभूषा में आप की प्रतिभा और विद्वत्ता को पहचान पाना साधारण व्यक्ति केलिये आपके संपर्क में आये बिना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। शास्त्री जी जब अपने जीवन की बीती घटनाओं का वर्णन करते है तो लगता है कि मानो वे उनके सामने चलचित्र की भांति उभर रही हों। आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति को देखकर आश्चर्य होता है। परन्तु इतनी प्रतिभाओं का धनी यह व्यक्ति, सदैव अभाव का जीवन ही जीता रहा है। मुन्शी प्रेमचद हिन्दी और उर्दू के महान साहित्यकार हए है परन्त उनका जीवन अभाव आर कष्ट में बाता। इसी प्रकार शास्त्री जी का जीवन भी अभाव और संघर्ष की गाथा है। धर्माराधना में कठोर पर परदुःख-कातर, अन्दर से कोमल और व्यथा से भरे हृदय को व्यक्ति उनके सम्पर्क में आकर ही जान सकता है। ईस्वी सन १९८० में मद्रास में आपको श्रावक रत्न की उपाधि से अलंकृत किया गया एवं वि.स. २०४५ वैसाखमास में आप श्री का श्री हस्तिनापुर जैनतीर्थ में आचार्य श्री विजयेंद्रदिन्नत सूरि की निश्रामें समस्त भारत से पधारे हुए श्री चतुर्विध संघ की उपस्थिति में श्री आत्मानन्द जैन महासभा (उत्तर भारत) ने भत्वमीन सम्मान ४०० ग्राम चांदी की प्लेट गरमशाल, ज़री के हार से किया और आप श्री को जैनविद्यामनन की पदवी से विभूषित किया जिसे उस चांदी की प्लेट में अंकित किया गया है। केवल जैनसमाज ही नहीं अपितु सभी समाजों की वृत्ति रही है कि वह व्यक्ति को कम से कम देकर अधिक से अधिक पाना चाहता है। साहित्यकार सदैव समाज से जितना पाता है उस से कहीं अधिक देता है। मुझे विश्वास है कि यदि शास्त्री जी आर्थिक चिंताओं से मक्त हों तो वे अपने जीवन के शेषकाल में भी समाज को अनठी कृतियां दे सकते हैं। दिनांक २२.१०.१९८८ निर्मलकमार जैन M.Sc.. दीपावली पर्व भूतपूर्व चीफ इंजीनियर महामंत्री श्री आत्मबल्लभ जैन पंजाबी संघ आगरा
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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