SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विकास ब्राह्मणघम के विरोध म स्पर्धा चिन्ता से हुआ है । इसी स्पर्धा म सस्कत शास्त्र श्रीमदभगवदगीता के समानान्तर पालिशास्त्र घमपद और प्राकतशास्त्र उत्तरा ध्ययनसूत्र का सकलन और प्रचारण विकसित हुआ। धम्मपद और उनराध्ययनसूत्र के मह व को बहुत अलग से देखने को जरूरत है । जब कोई सगठन चाह वह पार्मिक या साम्प्रदायिक हो अपने पूरे बल के साथ खडा होता ह तो उसके पास एक निश्चित जनभाषा का आधार होना चाहिए । साध और कायकर्ता होना चाहिए । सभाकक्ष मठ मन्दिर विहार बगीच मदिर और देवघर भी होन चाहिए । इसके साथ ही उसके पास प्रचलित धमपुस्तिका भी होनी चाहिए । सवग्रासी और सवव्यापी ब्राह्मणषम के समानान्तर यदि बौद्ध और जन धर्मों न अपनी पहचान बनायी तो वह इसी सामजस्य शक्ति के कारण बनी। य दोनो धम-व्यवस्थाय भी दुबल हुइ जब इन्होन जनभाषा साध तापस बल आश्रम और मठ तथा अपना निश्चित आचार छोड दिया। बाद म अनक बौद्ध ग्रन्थ सस्कत म लिखे जाने लगे। इसी तरह परवर्ती जैन-साहि यो को भाषा सस्कत हो जाती ह। सस्कत का स्त्र ग्रहण करना बौद्ध और जैनों की पहली पराजय है । इनकी दूसरी पराजय तब होती ह जब इनके साथ और तपस्वी आश्रमो विहारो तथा आरामो म स्थायी रूप से ठहरन लगते हैं चलना छोड देत है । गुफामो म रुककर चित्र बनाने लगते हैं और मठो म बैठकर मतियां और देवना गढन लगते हैं। अजन्ता और एलोरा के ऐतिहासिक अवशेष यह स्पष्ट सकेत करत ह कि भिक्षचर्या म चलना मांगना घमना क्रमश कम हुआ और भिक्ष साव कलाजीवी साधक बनन लग । बौद्धधर्म के साधना प्रथो से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि भिक्ष गुप्त स्थानो म निवास करने लगे और क्रमश तत्र वज्र कील मत्र और अतत अभिचार यभिचार से बौद्धो का सम्बध बढता चला गया । जनो के साथ भी एसा ही कुछ हुआ और धीरे धीरे ब्राह्मण घम-व्यवस्था न बौद्ध धम व्यवस्था से लडकर शयवाद को अद्वतवाद के रूप म बदलकर यथावसर शस्त्र से और मख्यत घणा प्रचार से बौद्धधर्म को वस्त कर दिया । मुझ ता यह भी लगता ह कि घणा बढ जान के बाद बुद्ध मूत्तियो को तोडने और श्रमणो को नृशस ढग से मारने की परम्परा पुरोहित घम यवस्था का एक निश्चित कारक बन गयी थी। बुद्ध को तोडन की जो परम्परा शरू हुई उसे ही तुर्को ने भी माग बढाया। तुर्को ने बुत के बहाने बुद्ध को ही तोडा। यह एक पूर्ण नियोजित काय क्रम था जिसे पुरोहित धम के सबालक चला रहे थे। बुद्ध और बत एक ही शब्द क दो रूप है । इसलिए इन सारी टटी हुई मतियो वस्त जमीदोज आश्रमो विहारो और बुद्ध-तीर्थों के लिए तुर्कों को ही नही ब्राह्मणों को भी स्मरण किया जाना चाहिए । अनक स्थानो पर जन-मत्तियो को तोडकर जो हिन्दू मत्तियां स्थापित की
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy