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________________ प्रतिपादित मनोविज्ञान से तुलना २३ वह कवाय है । सम्पूर्ण अथवा जिससे जीव पुन - पुन जन्म-मरण के चक्र में पडता है संसार वासना से उत्पन्न कषाय की अग्नि म जल रहा है। इसलिए शान्ति मार्ग के कर्णधार साधक के लिए कषाय का त्याग आवश्यक है । जैन ग्रन्थों में साधक को कषायो से सवथा दूर रहने के लिए कहा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि साधु को अपना मन क्रोध मान माया और लोभ में कभी नही लगाना चाहिए क्योकि शब्दादि गुणस्पर्शो के यही कारण हैं। अगर इन चारो पर विजय प्राप्त कर ली जाय तो शब्दादि मोहगुणों का आत्मा पर कोई प्रभाव नही पडता । ये शब्दादि गुण तो उन आत्माओ के लिए कष्टप्रद या आवश्यक होत हैं जिनके लिए उक्त चारो कषाय उदय में आये हुए हों । अत इन चारो कषायो पर विजय प्राप्त कर लेन से मोह के गुणों पर सहज में ही विजय-लाभ हो सकता है और इन पर विजय प्राप्त करने का सहज उपाय यह है कि इनके प्रति किसी प्रकार का राग-द्वेषमूलक क्षोभ नही करना चाहिए । राग और द्वेष य दो ही मुख्य कषाय है । क्रोधादि चारो कषाय इन्ही दो के अन्तगत हैं एव माया और लोभ का राग में अन्तर्भाव है अत इनको जीत लेने से मोह के सभी गुण और क्रोधादि सभी कषाय सुतरा ही पराजित हो जाते हैं । इसलिए ग्रन्थ म कहा गया है कि इन कषायों के परित्याग से इस जीवात्मा को वीतरागता की प्राप्ति होती है अर्थात कषायमुक्त जीब राग द्वेष से रहित हो होने के कारण उसको सख और दुख म भद भाव की की प्राप्ति होने पर उनको हष नही होता और का अनुभव नही करता किन्तु सुख और दुख करता है | तात्पय यह है कि उसके आत्मा म समभाव से भावित हो जाना ही कषाय-त्याग का जाता है । राग-द्वष से मुक्त प्रतीति नही होती अर्थात सख द ख वह किसी प्रकार के उद्वग दोनों का वह समान बुद्धि से आदर समभाव की परिणति होने लगती है । फल है । म कषाय कम का चौथा कारण ह । प्राणीमात्र के प्रति समभाव का अभाव या राग द्वेष को कषाय कहा जाता है । इसी समभाव के अभाव एव राग-द्वेष से उत्पन्न होने के कारण क्रोध मान माया और लोभ को भी कषाय कहा जाना है । १ अभिधान राजेद्र कोश खण्ड ३ प ३९५ उद्धत जैन के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ पृ ४९९ । २ रक्खज्जकोह विणएज्ज माण माय न सेवे पयहेज्जलोह । ३ कसायपच्चक्खाणण वीय रागभाव जणयइ । बीयरागभावपडिने ति यण जीवे समुसुहदुक्खे भवइ ।। बौद्ध तथा गीता उत्तराध्ययन ४।१२ । वही २९।३७ ॥
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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