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________________ १६३ लगता है । सभी चित सावध एव सदोष वस्तु के ग्रहण करने में हिंसा का दोष वस्तुओं को ग्रहण करना साधु के लिए निषेध माना गया है। इसलिए सचित वस्तु के किसीके द्वारा दिये जाने पर भी उसे ग्रहण करना चोरी है। बतलाये गये व्रतो का ठीक से पालन न करना भी चोरी है। अचीय व्रत से युक्त बहुत ही सुन्दर कथन उत्तराध्ययन में कहा गया है-धनधान्यादि का ग्रहण करना यह नरक का हेतु है । इसलिए बिना आज्ञा के साबु तृणमात्र पदार्थ को भी अगीकार न करे । यह शरीर बिना आहार के रह भी नहीं सकता। इसलिए गृहस्थ के द्वारा अपने पात्र में जो भोजन उसे प्राप्त हो उसीका आहार करना चाहिए । ४ ब्रह्मचर्य - महाव्रत कृत कारित अनुमोदनापूर्वक मनुष्य तियञ्च एव देव शरीर-सम्बन्धी सब प्रकार के मैथुन सेवन का मन वचन काय से त्याग करना ब्रह्मचर्य - महाव्रत है । इसके १८ भेदों का संकेत मिलता है । समाधिस्थान विशेष बातों का स्थान नाम दिया गया है। इन छोड़कर शेष ९ को टीका उत्तराध्ययनसूत्र भ ब्रह्मचय की रक्षा के लिए १ भावश्यक बतलाया गया है जिन्हें ग्रन्थ में समाधिस्थान का दस समाधिस्थानों में अन्तिम सग्रहात्मक समाधिस्थान को कारो ने ब्रह्मचय की गुप्तियाँ ( संरक्षिका ) कहा है। वित्त को एकाग्र करने के लिए इनका विशेष महत्व होने के कारण इन्हें समाधिस्थान कहा गया है। ये समाधिस्थान डॉ सुदर्शनलाल जैन के द्वारा निम्नलिखित रूप में विभाजित हैं १ आयाण नरम बिल्स नायएज्ज तणामवि 1 मणसा दो सुन्छो अप्पणो पाए दिन्न भुजेज्ज || २ दिव्य- माणुस भोयणं तेरिच्छ जो न सेबद्द मेहूण 1 फाय-बक्केण तं वय बम माह ॥ ३ बम्भम्मिनायज्ज्ञ यणेसु ठाणेसु यडसमाहिए । जे मिक्स जबई निवयं से न अच्छमण्डले । ४ कमरे बल ते बेरेहि भगवन्तेहि दस बम्मचेर सोच्या निसम्म सजम बहुले सवर बहुले गुत्तबमयारी सया अप्पसत्त विहरेज्जा । सूत्र एक परिशीलन पु २६८ ॥ ५ उत्तराध्ययन ३१ १ तथा उत्तराध्ययनसूत्र आत्माराम टीका १३९१ । ६ उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पू २६८-२७३ । उत्तराध्ययन ६८ । बही २५।२६ । वही ३१११४ । समाहिठाणा पन्नता जे भिक्खू समाहि बहुले गुत्ते पुत्तिन्दिए वही १६१२ तथा उत्तराध्ययन
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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