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________________ १९ परमावर्ष उत्तराध्ययन में वचन बोलने की क्रमिक तीन अवस्थायें बतलायी गयी है। इन तीनो अबस्थाओं म सत्य बोलन के क्रमश नाम भाव स य करण सत्य और योग सत्य मिलते हैं। इस तरह झठ बोलनेवाला एक मठ को छिपाने के लिए अन्य अनेक झूठ बोलता है और हिंसा चोरी आदि क्रियाओ में प्रवृत्त होता हुआ सुखी नही होता है। सत्य बोलनेवाला जसा बोलता ह वसा ही करता है और प्रामाणिक पुरुष होकर सुखी होता है। ३ अचोर्य-महावत तृतीय महावत की सजा सव अदत्तादान विरमण है जिसके अन्तर्गत श्रमण कोई भी बिना दी हुई वस्तु प्रहण नहीं करता। किसीकी गिरी हुई भूली हुई रखी हुई अथवा तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु को बिना स्वामी का आज्ञा के ग्रहण न करना अचार्य महावत है । मन वचन शरीर एव कृतकारित अनुमोदना से इस व्रत का पालन करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त जो वस्तु ग्रहण करे वह निरवद्य एव निर्दोष हो। अहिंसा-व्रत की रक्षा के लिए निरवद्य एव निर्दोष विशेषण दिया गया है क्योंकि १ सरम्भ-समारम्भे आरम्भे य तहेवय । वय पवत्त माण तु नियतज्जजय आई ॥ उत्तराध्ययन २४।२३ । २ भावसच्चेण भावविसोहिं जणयह । भावविसोहीए वट्टमाणे जीव अरहन्तपन्न-तस्स पम्नस्स बाराहणयाए अभुटठइ । अरहन्तपन्न-तस्स धम्मस्स बाराहणयाए अभुटिठता परलोग धम्मस्स राहएहवइ । वही २९।५१ । करणसच्चेण करण सत्ति जणयह । करणसच्चे बटटमाणे जीवे जहावाई तहा कारी यावि भव। वही २९।५२ । जोगसच्चेण जोग विसोहे। वही २९।५३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन १ २६५ ।। ३ मोसस्स पच्छा यपुरत्यओ य पोगकाले य दुही दुरन्ते । एव अदत्ताणि समाययन्तो रुवे अतित्तो दुहियो अणिस्सो ।। उत्तराध्ययन ३२६३१ । ४ दन्त-सोहण माइस्स अदत्तस्स विवज्जण । अणबज्जे सणिज्जस्स गण्हणा मयदक्करं ।। वही १९२८। चित्तमन्तमचित्त वा अप्प वाजइ वा बहु । म गण्हा अदत्त जे त वय बम माहणं ॥ वही २५।२५ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन १ २६७ ॥
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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