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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका | [ee जो तत्त्वार्थश्रद्धान, सो वेदक सम्यवत्व है, औसा कहिए है । यह ही वेदक सम्यक्त्व है, सो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व असा नामधारक है, जातै दर्शनमोह के सर्वघाती स्पर्धकनि का उदय का प्रभावरूप है लक्षरण जाका, ऐसा क्षय होते, बहुरि देशघातिस्पर्धकरूप सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होते, बहुरि तिसही का वर्तमान समयसबंधी तै ऊपरि के निषेक उदय को न प्राप्त भए, तिनिसंबंधी स्पर्धकनि का सत्ता अवस्थारूप है लक्षण जाका, ऐसा उपशम होते वेदक सम्यक्त्व हो है । ताते याही का दूसरा नाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है, भिन्न नाही है । 1 सो वेदक सम्यक्त्व कैसा है ? नित्यं कहिए नित्य है । इस विशेषण करि याकी जघन्यस्थिति अंतर्मुहूर्त है, तथापि उत्कृष्टपना करि छ्यासठि सागरप्रमाण काल रहै है । तातै उत्कृष्ट स्थिति अपेक्षा दीर्घकाल ताई रहै है, ताते नित्य कह्या है । बहुरि सर्वकाल अविनश्वर अपेक्षा नित्य इहा न जानना । बहुरि कैसा है ? कर्मक्षपरणहेतु ( कहिए ) कर्मक्षपावने का कारण है । इस विशेषण करि मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान - चारित्र परिणाम है, तिनि विषै सम्यक्त्व ही मुख्य कारण है, ऐसा सूचै है । बहुरि वेदक सम्यक्त्व विषै शंकादिक मल है, ते भी यथासंभव सम्यक्त्व का मूल तै नाश करने को कारण नाही, असे सम्यक्त्व प्रकृति के उदय तै उपजे है । बहुरि औपशमिक र क्षायिक सम्यक्त्व विषै मल उपजावने कौ कारण तिस सम्यक्त्व प्रकृति का उदय का प्रभाव ते निर्मलपना सिद्ध है, ऐसा हे शिष्य ! तू जान । बहुरि चलादिकनि का लक्षण कहै है, तहा चलपना कहिए है -- नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं स्मृतं । लसत्कल्लोलमालासु जलमेकमवस्थितं ॥ स्वकारितेऽर्हच्चत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते । श्रन्यस्यायमिति भ्राम्यन् मोहाच्छाद्धोऽपि चेष्टते ॥ - याका अर्थ - नाना प्रकार अपने ही विशेष कहिए ग्राप्त, ग्रागम, पदार्थरूप श्रद्धान के भेद, तिनि विषै जो चल - चंचल होइ, सो चल का है । सोई कहिए है - अपना कराया अर्हन्त प्रतिविबादिक विषै यहु मेरा देव है, ऐसे ममत्व करि, बहुरि
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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