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________________ १] [ गोम्मटसार जीवकाण गाया १६ तहां जीवादि वस्तु सर्वथा सत्वरूप ही है, मर्वथा असत्त्वरूप ही है, सर्वथा एक ही है, सर्वथा अनेक ही है - इत्यादि प्रतिपक्षी दूसरा भाव की अपेक्षारहित एकांतरूप अभिप्राय, सो एकांत मिथ्यात्व है । वहुरि अहिंसादिक समीचीन धर्म का फल जो स्वर्गादिक मुख, ताकी हिंसादिरूप यनादिक का फल कल्पना करि मान; वा जीव के प्रमाण करि सिद्ध है जो मोक्ष, ताका निराकरण करि मोक्ष का अभाव मान; वा प्रमाण करि खंडित जो स्त्री के मोक्षप्राप्ति, ताका अस्तित्व वचन करि स्त्री कौं मोन है जैसा मान इत्यादि एकांत अवलंवन करि विपरीतल्प जो अभिनिवेश - अभिप्राय, सो विपरीत मिथ्यात्व है । वहुरि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की सापेक्षा रहितपनैं करि गुरुचरणपूजनादिरूप विनय ही करि मुक्ति है - यहु श्रद्धान वैनयिक मिथ्यात्व है। बहुरि प्रत्यक्षादि प्रमाण करि ब्रह्मा जो अर्थ, ताका देशातर विष पर कालांतर विपै व्यभिचार जो अन्यथाभाव, सो संभव है । तातें अनेक मत अपेक्षा परस्पर विरोधी जो आप्तवचन, ताका भी प्रमाणता की प्राप्ति नाहीं । तातें जैसे ही तत्त्व है, जैसा निर्णय करने की शक्ति के अभाव तें सर्वत्र संशय ही है, जैसा जो अभिप्राय, सो संजय मिथ्यात्व है । बहुरि नानावरण दर्शनावरण का तीब उदय करि संयुक्त जे एकेद्रियादिक जीव, तिनके अनेकांत स्वन्य वस्तु है, जैसा वस्तु का सामान्य भाव विर्ष अर उपयोग लक्षण जीव है जैसा वस्तु का विशेष भाव विपै जो अज्ञान, ताकरि निपज्या जो श्रद्धान, सो अनान मिथ्यात्व है । ___ अने स्थूल भेदनि का आश्रय करि मिथ्यात्व का पंचप्रकारपना कह्या, जातें मृत्म भेदनि का आश्रय करि असंख्यात लोकमात्र भेद संभव हैं। तातें तहां व्याच्यानादिक व्यवहार की अप्राप्ति है । प्राग इन पंचनि का उदाहरण की कहै हैं - एयंत बुद्धदरसी, विवरीओ वह्म तावसो विरणओ। इंदो विय संसइयो, मक्कडिओ चेव अण्णाणी ॥१६॥ एकांतो वुद्धदर्णी, विपरीतो ब्रह्म तापसो विनयः। इंद्रोऽपि च संशयितो, मस्करी चैवानानी ।।१६।।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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