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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] [१ क्षयोपशम हो है । सो स्पर्धकनि का वा निषेकनि का वा सर्वघाति-देशघातिस्पर्धकनि के विभाग का आगै वर्णन होगा, तातै इहां विशेष नाही लिख्या है । सो इहां भी पूर्वोक्तप्रकार चारित्रमोह को क्षयोपशम ही है । तातै क्षायोपशमिक भाव देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त विष जानना । तैसे ही ऊपरि भी अपूर्वकरणादि गुणस्थाननि विषै चारित्रमोह को आश्रय करि भाव जानने। तत्तो उरि उवसमभावो उवसामगेसु खवगेसु । खइओ भावो रिणयमा, अजोगिचरिमोत्ति सिद्धे य ॥१४॥ तत उपरि उपशमभावः उपशामकेषु क्षपकेषु । क्षायिको भावो नियमात् अयोगिचरम इति सिद्धे च ॥१४॥ टीका - तातै ऊपरि अपूर्वकरणादि च्यारि गुणस्थान उपशम श्रेणी संबधी, तिनिविर्ष औपशमिक भाव है। जातै तिस सयम का चारित्रमोह के उपशम ही ते संभव है। बहुरि तैसे ही अपूर्वकरणादि च्यारि गुणस्थान क्षपक श्रेणी संबंधी पर सयोगअयोगीकेवली, तिनिविणे क्षायिक भाव है नियमकरि, जातै तिस चारित्र का चारित्रमोह के क्षय ही ते उपजना है । बहुरि तैसे ही सिद्ध परमेष्ठीनि विष भी क्षायिक भाव हो है, जातै तिस सिद्धपद का सकलकर्म के क्षय ही ते प्रकटपना हो है । प्रागै पूर्वं नाममात्र कहे जे चौदह गुणस्थान, तिनिविर्ष पहिले कह्या जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, ताका स्वरूप को प्ररूपै है - मिच्छोदयण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्चअत्थाणं । एयंतं विवरीयं, विरण्यं संसयिदमण्णाणं ॥१५॥ मिथ्यात्वोदयेन मिथ्यात्वमश्रद्धानं तु तत्त्वार्थानाम् । एकांतं विपरीतं, विनयं संशयितमज्ञानम् ॥१५॥ टीका - दर्शनमोहनी का भेदरूप मिथ्यात्व प्रकृति का उदय करि जीव के अतत्त्व श्रद्धान है लक्षण जाका असा मिथ्यात्व हो है । बहुरि सो मिथ्यात्व १. एकांत २. विपरीत ३. विनय ४. संशयित ५. अज्ञान - असे पांच प्रकार है ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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