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________________ ७२८ ] [ गोम्मटसार मौवकाण्ड गाथा ६७०-६७१ टोका - आहारक अर मारणांतिक ए दोऊ समुद्घात तौ नियम करि एक दिशा को ही प्राप्त हो है; जाते इन विष सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण ही उंचाई, चौड़ाई होइ । अर लंबाई बहुत होइ । तातें एक दिशा को प्राप्त कहिए। बहुरि अवशेष पंच समुद्घात रहे, ते दशों दिशा कौं प्राप्त हैं, जातै इनि विषे यथायोग्य लंबाई, चौड़ाई, उंचाई सर्व ही पाइए है । आगे आहार अनाहार का काल कहैं हैंअंगुलअसंखभागो, कालो आहारयस्स उक्कस्सो। कम्मम्मि प्रणाहारो, उक्कस्सं तिण्णि समया हु॥६७०॥ अंगुलासंख्यभागः, कालः आहारकस्योत्कृष्टः। कार्मणे अनाहारः, उत्कृष्टः त्रयः समया हि ॥६७०॥ टीका - आहार का उत्कृष्ट काल सच्यंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है। सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग के जेते प्रदेश होंहि, तितने समय प्रमाण आहारक का काल है। ___इहां प्रश्न - जो मरण तो आयु पूरी भएं पीछे होइ ही होइ, तहां अनाहार होइ इहां आहार का काल इतना कैसे कह्या ? ताका समाधान - जो मरण भए भी जिस जीव के वक्ररूप विग्रह गति न होइ, सूधी एक समय रूप गति होइ, ताकै अनाहारकपणा न हो है । आहारकपणा ही रहै है, तातै प्राहारक का पूर्वोक्तकाल उत्कृष्टपने करि कह्या है । बहुरि आहारक का जघन्य काल तीन समय घाटि सांस का अठारहवां भाग जानना; जाते क्षुद्रभव विपं विग्रहगति के समय घटाए इतना काल हो है। बहुरि अनाहारक का काल कार्माण शरीर विपै उत्कृष्ट तीन समय जघन्य एक समय जानना; जाते विग्रह गति विप इतने काल पर्यंत ही नोकर्म वर्गणानि का ग्रहण न हो है। आगे इहां जीवनि की संख्या कहै हैकम्मइयकायजोगी, होदि अणाहारयाण परिमाणं । तविरहिदसंसारी, सन्चो आहारपरिमाणं ॥६७१॥' कार्मणकाययोगी, भवति अनाहारकाणां परिमारणम् । तद्विरहितसंसारी, सर्व प्राहारपरिमाणम् ॥६७१॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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