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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ ७२७ टीका - विग्रहगति कौ जे प्राप्त भए, जैसे च्यारचों गतिवाले जीव, बहुरि प्रतर अर लोकपूरणरूप केवल समुद्घात को प्राप्त भए असे सयोगी - जिन, बहुरि सर्व अयोगी- जिन, बहुरि सर्व सिद्ध भगवान ए सर्व अनाहारक है । अवशेष सर्व जीव आहारक ही है । सो समुद्घात के प्रकार है ? सो कहै है drusसायवेवियो य मरणंतियो समुग्धादो । तेजाहारो छट्ठो, सत्तमश्र केवलीरगं तु ॥ ६६७॥ वेदनाकषायवैर्विकारच, मारणांतिकः समुद्घातः । तेजआहारः षष्ठः, सप्तमः केवलिनां तु ॥ ६६७ || टीका - वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणांतिक तैजस, छठा आहारक, सातवां केवल ए सात समुद्घात जानने । इनिका स्वरूप लेश्या मार्गणा विषै क्षेत्राधिकार में कहा था, सो जानना । समुद्घात का स्वरूप कहा, सो क है है - मूलसरीरमछंडिय, उत्तरदेहस्त जीवपिंडस्स । णिग्गमणं देहादो, होदि समुग्धादणामं तु ॥ ६६८ ॥ मूलशरीरमत्यक्त्वा उत्तरदेहस्य जीवपिंडस्य । निर्गमनं देहाद्भवति समुद्घातनाम तु ।।६६८।। 1 टीका - मूल शरीर को तो छोड़े नाही, बहुरि कार्मारण, तैजसरूप उत्तर शरीर सहित जीव के प्रदेश समूह का मूल शरीर ते बाह्य निकसना, सो समुद्घात जैसा नाम जानना । श्राहारमारतिय दुगं पि णियमेण एगदिसिगं तु । दस - दिसि गदा हु सेसा, पंच समुग्धादया होंति ॥ ६६६ ॥ आहारमारणांतिक द्विकमपि नियमेन एकदिशिकं तु । दशदिशि गताहि शेषाः पंच समुद्घातका भवति ॥ ६६९ ॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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