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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] [ ५६१ टीका - बहुरि जो विशुद्धपरिणामनि की वृद्धि होइ, तौ अनुक्रम ते पीत, पद्म, शुल्क के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अंशरूप परिणव है । बहुरि जो विशुद्ध परिणामनि की हानि होइ, तो, अन्यथा कहिए शुक्ल, पद्म, पीत के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश रूप अनुक्रम तै परिणवै है । इति परिणामाधिकारः । आगे संक्रमणाधिकार तीन गाथानि करि कहै है - संकमरणं सट्ठाण-परट्ठाणं होदि किण्ह-सुक्काणं । वड्डीसु हि सट्ठाणं, उभयं हाणिम्मि सेसउभये वि ॥५०४॥ संक्रमणं स्वस्थान-परस्थानं भवतीति कृष्णशुक्लयोः । वृद्धिषु हि स्वस्थानमुभयं हानौ शेषस्योभयेऽपि ॥५०४॥ टीका - संक्रमण नाम परिणामनि की पलटनि का है; सो संक्रमण दोय प्रकार है - स्वस्थानसंक्रमण, परस्थानसंक्रमण । तहां जो परिणाम जिस लेश्यारूप था, सो परिणाम पलटि करि तिसही लेश्यारूप रहै, सो तो स्वस्थान संक्रमण है। बहुरि जो परिणाम पलटि करि अन्य लेश्या को प्राप्त होइ, सो परस्थान संक्रमण है। तहां कृष्ण लेश्या अर शुक्ललेश्या की वृद्धि विष तौ स्वस्थानसंक्रमण ही है; जातै सक्लेश की वृद्धि कृष्णलेश्या के उत्कृष्ट अश पर्यंत ही है । अर विशुद्धता की वृद्धि शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंश पर्यंत ही है। बहुरि कृष्णलेश्या अर शुक्ल लेश्या के हानि विर्षे स्वस्थानसंक्रमण परस्थानसंक्रमण दोऊ पाइए है । जो उत्कृष्ट कृष्णलेश्या तै सक्लेश की हानि होइ, तौ कृष्ण लेश्या के मध्यम, जघन्य अशरूप प्रवते, तहा स्वस्थान सक्रमण भया, अर जो नीलादिक अन्य लेश्यारूप प्रवर्ते, तहा परस्थान सक्रमण भया। जैसे कृष्ण लेश्या के हानि विष दोऊ संक्रमण है । बहुरि उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या ते जो विशुद्धता की हानि होइ, तो शक्ल लेश्या के मध्यम, जघन्य अंशरूप प्रवर्ते । तहा स्वस्थान संक्रमण भया। बहुरि पद्मादिक अन्य लेश्यारूप प्रवर्ते, तहां परस्थान संक्रमण भया । जैसे शुल्क लेश्या के हानि विपै दोऊ संक्रमण हैं।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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