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________________ ५६० ] [गोम्मटसार जीवका गाया ५०१-५०२-५०३ एक में अनन्तभागादिक षट्स्थान संभव हैं। तहां अशुभ रूप तीन भेदनि विप ती उत्कृष्ट तै लगाइ जघन्य पर्यत असंख्यात लोक मात्र वार पट् स्थानपतित संक्लेश हानि संभव है। बहुरि शुभरूप तीन भेदनि विपै जघन्य ते लगाइ, उत्कृप्ट पर्यंत असंख्यात लोकमात्र बार षट्स्थान पतित विशुद्ध परिणामनि की वृद्धि संभव है। परिणामनि की अपेक्षा संक्लेश विशुद्धि के अनंतानन्त अविभाग प्रतिच्छेद हैं; तिनकी अपेक्षा षट्स्थानपतित वृद्धि - हानि जानना । असुहारणं वर-मज्झिम-अवरंसे किण्ह-णील-काउतिए । परिणमदि कमेणप्पा, परिहाणोदो किलेसस्स ॥५०१॥ अशुभानां वरमध्यमावरांशे कृष्णनीलकापोतत्रिकानाम् । परिणमति क्रमेणात्मा परिहानितः क्लेशस्य ॥५०१॥ टीका - जो संक्लेश परिणामनि की हानिरूप परिणमै, तो अनुक्रम ते कृष्ण के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश; नील के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश; कपोत के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश रूप परिणवै है। काऊ पीलं किण्हं, परिणमदि किलेसवड़ढिदो अप्पा । एवं किलेसहाणी-वड्ढीदो होदि असुहतियं ॥५०२॥ कापोतं नीलं कृष्णं, परिणमति क्लेशवृद्धित आत्मा । एव क्लेशहानि-वृद्धितो भवति अशुभत्रिकम् ॥५०२॥ टीका - बहुरि जो संक्लेश परिणामनि की वृद्धिरूप परिणमै तौ अनुक्रम तै कपोतरूप, नीलरूप, कृष्णरूप परिणवै है । जैसै संक्लेश की हानि - वृद्धि करि तीन अशुभ स्थान हो है। तेऊ पडमे सुक्के, सुहाणमवरादिअंसगे अप्पा। सुद्धिस्स य वड्ढीदो, हारणीदो अण्णहा होदि ॥५०३॥ तेजसि पद्म शुक्ले, शुभानामवराधेशगे आत्मा । शुद्धेश्च वृद्धितो, हानितः अन्यथा भवति ॥५०३॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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