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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका | [ ५५५ होइ । असें सातवें नरक अवधि क्षेत्र एक कोश, छठे ड्योढ़ कोश, पांचवे दोय कोश, चौथे अढ़ाई कोश, तीसरे तीन कोश, दूसरे साढे तीन कोश, पहले च्यारि कोश प्रमाण एक योजना जानना । गैं तिर्यंचगति मनुष्यगति विषै क है हैं - तिरिये अवरं श्रोघो, तेजोयंते य होदि उक्कस्सं । मरण मग ए श्रघं देवे, जहाकमं सुणह वोच्छामि ॥ ४२५॥ तिरश्चि वरमोघ', तेजisते च भवति उत्कृष्टं । मनुजे श्रोधं देवे, यथाक्रमं श्रृणुत वक्ष्यामि ||४२५॥ टीका - तियंच जीव विषे जघन्य देशावधिज्ञान हो है । बहुरि यातै लगाइ उत्कृष्टपनें तैजसशरीर जिस देशावधि के भेद का विषय है, तिस भेद पर्यंत सर्व सामान्य अवधिज्ञान के वर्णन विषै जे भेद कहे, ते सर्व हो है । बहुरि मनुष्य गति विषै जघन्य देशावधि तै सर्वावधि पर्यत सामान्य अवधिज्ञान विषे जेते भेद कहे, तिनि सर्व भेदन को लीए अवधिज्ञान हो है । बहुरि देवगति विषे जैसा अनुक्रम है, सो मैं कहो हो, तुम सुनहु पणुवीसजोयणाई, दिवसंतं च य कुमारभोम्माणं । संखेज्जगुरणं खेत्तं, बहुगं कालं तु जोइसिगे ॥ ४२६॥ पंचविशतियोजनानि, दिवसांतं च च कुमारभौमयो । संख्यातगुण क्षेत्रं, बहुकः कालस्तु ज्योतिष्के ॥४२६॥ टीका - भवनवासी अर व्यन्तर, इनिकै अवधिज्ञान का विषयभूत जघन्यपनै क्षेत्र तौ पचीस योजन है । अर काल किछू एक घाटि एक दिन प्रमाण है । बहुरि ज्योतिषी देवनि के क्षेत्र तौ इस क्षेत्र ते असंख्यात गुरणा है, अर काल इस काल बहुत है । असुराणमसंखेज्जा, कोडीओ सेसजोइसंताणं । संखातीदसहस्सा, उक्कस्सोही विसओ दु ॥ ४२७॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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