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________________ ५५० [ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाया ४११-४२० परमावहि-वरखेत्तेणवहिद - उक्कस्स - ओहिखेत्तं तु । सव्वावहि- गुणगारो, काले वि असंखलोगो दु ॥ ४१६ ॥ परमावधिवरक्षेत्रेणावहितोत्कृष्टावधिक्षेत्रं तु । सर्वावधिगुणकारः, कालेऽपि असंख्य लोकस्तु ॥४१९॥ टीका - उत्कृष्ट अवधिज्ञान के क्षेत्र का परिमाण कहिए । द्विरूप घनाघनधारा विषै लोक अर गुणकार शलाका अर वर्गशलाका ग्रर अर्थच्छेद शलाका अर काय की स्थिति का परिमाण अर अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र का परिमाण ए स्थानक क्रम ते असंख्यात असंख्यात वर्गस्थान गएं उपजै है । ताते पांच बार असंख्यात लोक प्रमाण परिमाण करि लोक कौ गुणै, जो प्रमाण होई, तितना सर्वावविज्ञान का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र का परिमारण है । याकौ उत्कृष्ट परमावधिज्ञान का विपयभूत क्षेत्र का भाग दीएं, जो परिमाण होइ, सोई सर्वावधिज्ञान का विपयभूत क्षेत्र का परिमाण ल्यावने के निमित्त गुणकार हो है । इस गुणकार करि परमावधि का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र की गुणिए, तब सर्वावधिज्ञान का विपयभूत क्षेत्र का परिमारण हो है । बहुरि काल परिमारण ल्यावने के निमित्त असंख्यात लोक प्रमाण गुणकार है । इस असंख्यात लोक प्रमाण गुणकार करि उत्कृष्ट परमावधिज्ञान का विषयभूत काल कौ गुणिये, तब सर्वावधि ज्ञान का विषयभूत काल का परिमाण हो है । इहां कोऊ कहै कि रूपी पदार्थ तो लोकाकाश विषै ही पाइए है । इहां परमावधि-सर्वावधि विषै क्षेत्र का परिमाण लोक तै प्रसंख्यातगुणा कैसे कहिए है ? सो इसका समाधान श्रागे द्विरूप घनाघनधारा का कथन विषै करि आए है; सो जानना । शक्ति अपेक्षा कथन जानना । अब परमावधि ज्ञान का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र का वा उत्कृष्ट काल का परिमाण ल्यावने के निमित्त करणसूत्र दोय कहिए है - इच्छिदरासिच्छेद, दिण्णच्छेदेहिं भाजिदे तत्थ लद्धमिददिण्णरासीणब्भासे इच्छिदो रासी ॥४२०॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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