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________________ सम्यग्ज्ञानन्द्रिका भाषाटोका ] [ ४५ गुणवृद्धि भई थी, इहा पीछे ही पीछे एक बार असख्यात गुणवृद्धि भई । याही ते यत्र विषै तीसरी पंक्ति प्रथम पंक्ति सारिखी लिखी । नवमा कोठा मै उहा तो दोय उकार पर छह का अक लिख्या था, इहा तीसरी पक्ति विषे नवमा कोठा विषै दोय उकार नर सप्त का अंक लिख्या । इहा और सर्व कहिए अर असंख्यात गुणवृद्धि पर कहिए | बहुरि इहाते जैसे तीनो ही पक्ति विषे आदि ते लेकरि अनुक्रम तै वृद्धि भई, तैसे ही अनुक्रम ते सूच्यगुल का असंख्यातवा भाग प्रमारण होइ । तब असख्यात गुणवृद्धि भी सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण होइ निवरे, सो इहां यंत्र विषे सूच्यंगुल का असख्यातवा भाग प्रमारग तैसे ही होने की सहनानी के अथि जैसे तीन पक्ति करी थी, तैसे ही दूसरी पक्ति लिखी, जैसे छह पक्ति भई । अब इहां ते आगे जैसे आदि तै लेकरि अनुक्रम तै तीनों पक्ति विषै वृद्धि कही थी, तैसे ही तैसे अनुक्रम ते फेरि सर्ववृद्धि भई । विशेष इतना जो तीसरी पंक्ति का अत विषै जहा असख्यात गुणवृद्धि कही थी, सो इहा तीसरी पंक्ति का प्रत विषै एक बार अनत गुणवृद्धि हो है । याही ते यत्र विषै भी पहिली, दूसरी, तीसरी सारिखी तीन पक्ति और लिखी । उहा तीसरी पंक्ति का नवमां कोठा विषै दोय उकार सप्त का अक लिख्या था । इहा तीसरी पक्ति का नवमा कोठा विषै दोय उकार अर आठ का अक लिख्या, सो इहा अनत गुणवृद्धि को पर कहिए; अन्य सर्व पूर्व कहिए | या आगे कोई वृद्धि रही नाही, ताते याकी पूर्व सज्ञान होइ, याही हुनत गुणवृद्धि एक बार ही हो है । सो इस अनत गुणवृद्धि कौ होत सतै जो प्रमाण भया, सोई नवीन षट्स्थानपतित वृद्धि का पहिला स्थानक जानना । जैसे पर्यायसमास ज्ञान विषे असख्यात लोक मात्र बार षट्स्थानपतित वृद्धि हो है । अब याका कथन प्रकट कर दिखाइए है- द्विरूप वर्गधारा विषै जीवराशि तै अनतानत गुणां जघन्य पर्याय नामा ज्ञान की अपेक्षा अपने विषय को प्रकाशनेरूप शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद कहे है, सो इस प्रमाण की जीवराशि प्रमाण अनत का भाग दीए जो परिमाण आवै, ताकी उस जघन्य ज्ञान विषे मिलाए, पर्यायसमास ज्ञान का प्रथम भेद हो है । इहा एक बार अनत भागवृद्धि भई । बहुरि इस पर्याय - समास ज्ञान का प्रथम भेद कौ जीवराशि प्रमाण अनत का भाग दिए, जो परिमाण आवै, तितना उस पर्यायसमास ज्ञान का प्रथम भेद विषै मिलाए, पर्यायसमास ज्ञान का दूसरा भेद हो है । इहा दूसरा अनत भागवृद्धि भई । वहुरि उस दूसरे भेद को
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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