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________________ ४५६ ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३२६ वृद्धि की सहनानी जाननी । अर ताके आगै च्यारि का अक लिख्या, सो एक बार असंख्यात भागवृद्धि की सहनानी जाननी । बहुरि इहा ते सूच्यगुल का असंख्यातवा भाग प्रमाण अनत भागवृद्धि भए पीछे दूसरा एक बार असंख्यात भागवृद्धि होइ । असे ही अनुक्रम ते सूच्यगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण असख्यात भागवृद्धि हो है। ताते यंत्र विषै प्रथम पक्ति का दूसरा कोठा विर्षे प्रथम कोठावत् दोय उकार, एक च्यारि का अक लिख्या। दूसरी बार लिखने ते सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग वार जानि लेना। बहुरि इहा ते आगै सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण अनत भागवृद्धि होइ, तव एक वार संख्यात भागवृद्धि होइ । यातै प्रथम पंक्ति का तीसरा कोठा विर्ष दोय उकार पर एक पाच का अक लिख्या । अब इहा तै जैसे पूर्व अनंत भागवृद्धि लीए, सूच्यगुल का असख्यातवां भाग प्रमाण असख्यात भागवृद्धि होइ; पीछे सूच्यंगुल का असख्यातवां भाग प्रमाण अनत भागवृद्धि होइ, तब एक बार संख्यात भागवृद्धि भई, तैसे ही याही अनुक्रम ते दूसरा सख्यात भागवृद्धि भई । बहुरि याही अनुक्रम तै तीसरा भई, असे सख्यात भागवृद्धि भी सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण बार हो है । तातै इहां यत्र विष प्रथम पक्ति विर्ष जैसे तीन कोठे किये थे, तसै अगुल का असख्यातवा भाग की संहनानी के अथि दूसरा तीन कोठे उस ही पंक्ति विर्ष कीए । इहा असख्यात भागवृद्धि को पूर्व कहिए, सख्यात भागवृद्धि को पर कहिए । बहुरि इहा ते सूच्यगुल का अमख्यातवा भाग प्रमाण अनत भागवृद्धि होइ, एक बार असख्यात भागवृद्धि होड' असे सूच्यगुल का असख्यातवा भागप्रमाण असख्यात भागवृद्धि होइ, सो याकी सहनानी के अर्थि यत्र विषै दोय उकार अर च्यारि का अक करि सयुक्त दोय कोठे कीए । वहुरि यातै आगे सूच्यगुल का असंख्यातवा भागप्रमाण अनत भागवृद्धि होड करि एक वार संख्यात गुणवृद्धि होइ; सो याकी सहनानी के अथि प्रथम पक्ति का नवमा कोठा विपै दोय उकार पर छह का अक लिख्या । बहुरि जैसे प्रथम पक्ति विपं अनुक्रम कह्या, तैसे ही आदि तै लेकरि सर्व अनुक्रम दूसरा भया । तब एक बार दूसरा संख्यात गुणवृद्धि भई । जैसे ही अनुक्रम तै सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण सख्यात गुणवृद्धि हो है; सो सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण तसे होने की सहनानी के अथि यत्र विष जैसी प्रथम पक्ति थो, तैसे ही वाके नीचे दूसरी पवित लिखी । वहुरि इहां तै जैसे प्रथम पक्ति विर्षे अनुकम कह्या था, तैसे अनुभम ने बहुरि वृद्धि भई । विशेष इतना जो उहा पीछे ही पीछे एक बार सख्यात
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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