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________________ ४५२ ] [ गोग्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३१६-३१७-३१८ आगे श्रुतज्ञान के अक्षरात्मक अनक्षरात्मक भेदनि को दिखावै हैलोगाणमसंखमिया, अणक्खरप्पे हवंति छाणा । वेरूवछट्ठवग्गपमाणं रूऊणसक्खरगं ॥३१६॥ लोकानामसंख्यमितानि, अनक्षरात्मके भवति षट्स्थानानि । द्विरूपषष्ठवर्गप्रमाणं रूपोनमक्षरगं ॥३१६॥ टीका - अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद पर्याय अर पर्यायसमास, तीहिं विर्षे जघन्य सौ लगाइ उत्कृष्ट पर्यत असख्यात लोक प्रमाण ज्ञान के भेद हो है । ते भेद असख्यात लोक बार षट्स्थानपतित वृद्धि की लीए है। बहुरि अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है, सो द्विरूप वर्गधारा विर्ष जो एकट्टी नामा छठा स्थानक कह्या, तामै एक घटाएं, जो प्रमाण रहै, तितने अपुनरुक्त अक्षर है। तिनकी अपेक्षा सख्यात भेद लीएं है । विवक्षित अर्थ को प्रकट करने निमित्त बार बार जिन अक्षरनि कौ कहिए; असे पुनरुक्त अक्षरनि का प्रमाण अधिक संभव है । सो कथन आगै होइगा । आगै श्रुतज्ञान का अन्य प्रकार करि भेद कहने के निमित्त दोय गाथा कहै है - पज्जायक्खरपदसंघा? पडिवत्तियाणिजोगं च । दुगवारपाहुडं च य, पाहुडयं वत्थुपुव्वं च ॥३१७॥ तेसि च समासेहि य, वीसविहं वा हु होदि सुदणाणं । आवरणस्स वि भेदा, तत्तियमेत्ता हवंति ति ॥३१८॥२ पर्यायाक्षरपदसंघातं प्रतिपत्तिकानुयोगं च । द्विकवारप्राभृतं च, च प्रामृतकं वस्तु पूर्व च ॥३१७॥ तेषां च समासंश्च. विंशविधं वा हि भवति श्रुतज्ञानम् । प्रावरणस्यापि भेदाः, तावन्मात्रा भवंति इति ।।३१८॥ टीका - १. पर्याय, २. अक्षर, ३. पद, ४ सघात, ५ प्रतिपत्तिक, ६. अनुयोग, ७ प्राभृत-प्राभृत, ८ प्राभृत, ९ वस्तु, १० पूर्व दश तौ ए कहे। १ षट्खडागम - धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २१ की टीका । २ पट्खडागम - धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २१ को टीका ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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