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________________ ४२० ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २८९ ____टोका - नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव विष उत्पन्न भया, जीव के पहिला समय विप क्रम ते क्रोध, मान, माया लोभ का उदय हो है । नारकी उपजै तहा उपजते ही पहले समय क्रोध कषाय का उदय होइ । जैसे तिर्यच कै माया का, मनुष्य के मान का, देव के लोभ का उदय जानना । सो असा नियम कषायप्राभृत दूसरा सिद्धांत का कर्ता यतिवृषभ नामा आचार्य, ताके अभिप्राय करि जानना । बहुरि महाकर्म प्रकृति प्राभृत प्रथम सिद्धांत का कर्ता भूतबलि नामा आचार्य, ताके अभिप्राय करि पूर्वोक्त नियम नाही । जिस तिस कोई एक कषाय का उदय हो है । असे दोऊ आचार्यनि का अभिप्राय विर्षे हमारे सदेह है; सो इस भरत क्षेत्र विर्षे केवली श्रुतकेवली नाही; वा समीपवर्ती आचार्यनि के उन आचार्यनि ते अधिक ज्ञान का धारक नाही; तातै जो विदेह विर्षे गये तीर्थकरादिक के निकटि शास्त्रार्थ विष सशय, विपर्यय, अनध्यवसाय का दूर होने करि निर्णय होइ, तब एक अर्थ का निश्चय होड तातै हमौने दोऊ कथन कीए है। अप्पपरोभय-बाधण बंधासंजम-णिमित्त-कोहादी। जेसिं णत्थि कसाया, अमला अकसाइणो जीवा ॥२८॥ आत्मपरोभयबाधनबंधासंयमनिमित्तक्रोधादयः। येषां न संति कषाया, अमला अकषायिरगो जीवाः ॥२८९॥ टीका - आपकौ व परको वा दोऊ को बधन के वा बाधा के वा असंयम के कारगगभूत असे जु क्रोधादिक कषाय वा पुरुष वेदादिरूप नोकषाय, ते जिनके न पाइये, ते द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म मल करि रहित सिद्ध भगवान अकषायी जानने । उपशात कपाय से लेकर च्यारि गुणस्थानवर्ती जीव भी अकषाय निर्मल है । तिनकै गुणस्थान प्ररूपणा ही करि अकषायपना की सिद्धि जाननी । तहा कोऊ जीव के तौ क्रोधादि कपाय असे हो है, जिनते आप ते आप को बाधे, आप ही आप के मस्तकादिक का घात करें। आप ही आप के हिसादि रूप असयम परिणाम करै । बहुरि कोई जीव के क्रोधादि कपाय जैसे हो है, जिनते और जीवनि को वाध, मारे, उनके अमयम परिणाम करावै । बहुरि कोई जीव के क्रोधादि कषाय असे हो है, जिनते आप का वा और जीवनि का वांधना, घात करना, असंयम होना होइ, सो असे ए कपाय अनर्थ के मूल है। १ पट्याटागम-ववला पुस्तक १, १० ३५३, गाथा स० १७८.
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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