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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ ४१६ किमिराय - चक्क तणु- मल-हरिद्द-राएण सरिसओ लोहो । णारय-तिरिक्ख माणुस - देवेसुप्पायो कमसो ॥२८७॥ टीका - क्रिमिराग, चक्रमल, तनुमल, हरिद्वाराग समान जो लोभ विषयाभिलाषरूप परिणाम, सो क्रम ते नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव गति विषे उपजावै है । सोई कहिए है - क्रिमिरागचक्रतनुमलहरिद्वारागेण सदृशो लोभः । नारकतिर्यग्मानुषदेवेषु उत्पादकः क्रमशः ॥ २८७ ॥ जैसे क्रिमिराग कहिए किरमिची रंग, सो बहुत घने काल गये बिना नष्ट न होइ, तैसे जो बहुत घने काल बिना नष्ट न होइ, असा जो उत्कृष्ट शक्ति लीए लोभ, सो जीव कीं नरकगति विषै उपजावै है । बहुरि जैसे चक्रमल जो पहिये का मैल, सो घने काल बिना नष्ट न होइ, तैसे घने काल बिना नष्ट न होइ, असा जो अनुत्कृष्ट शक्ति लीएं लोभ, सो जीवको तिर्यच गति विषे उपजा है । बहुरि जैसें तनुमल, जो शरीर का मैल, सो थोरा काल बिना नष्ट न होइ, तैसे थोरा काल बिना नष्ट न होइ जैसा जो अजघन्य शक्ति लीएं लोभ, सो जीव को मनु य गति विषं उपजाव है । बहुरि जैसे हरिद्राराग कहिए हलद का रंग सो बहुत थोरा काल बिना नष्ट न होइ, तैसे बहुत थोरे काल बिना नष्ट न होइ, असा जो जघन्य शक्ति लीए लोभ, सो जीव को देव गति विषै उपजावै है । जैसे जिन-जिन कषायनि तै जो-जो गति का उपजना का, तिन तिन कषायनि ते तिस ही तिस गति सबंधी प्रयु वा श्रानुपूर्वी इत्यादिक का बंध जानना । १ खारय-तिरिक्ख-पर-सुर- गईसु उप्पण्णपढमकालन्हि । कोहो माया मारणो, लोहुदग्रो अणियमो वाऽपि ॥ २८८ ॥ 19 नारकतिर्यग्नरसुरगतिषूत्पन्नप्रथमकाले । क्रोधो माया मानो, लोभोदयः श्रनियमो वाऽपि ॥२८८॥ पट्खडागम-घवला, पुस्तक १, पृ. ३५२, गा स १७७.
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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