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________________ गम्यग्ज्ञानन्द्रिका भाषाटीका ] तेषां समयबद्धाः श्रेण्यसंख्येयभागगुणितक्रमाः । अनंतेन च तेजोद्विकाः, परं परं भवति सूक्ष्मं खलु ॥ २४६ ॥ टीका - तिन पंच शरीरनि के समयप्रबद्ध सर्व ही परस्पर समान नाही है । उत्तरोत्तर अधिक परमाणूनि का समूह लीए है; सो कहिए है । परमाणूनि का प्रमारण करि श्रदारिक शरीर का समयप्रबद्ध सर्व तै स्तोक है । याते श्रणी का असंख्यातवां भाग गुणा परमाणू प्रमाण वैक्रियिक का समयप्रबद्ध है । बहुरि यातें भी रिणका असंख्यातवां भाग गुणा परमाणू प्रमाण आहारक का समयप्रबद्ध है । अँसे ग्राहारक पर्यंत जगतश्रेणी का असंख्यातवां भाग को गुरणकार की विवक्षा जाननी । तातें परै आहारक के समयप्रबद्ध ते अनंतगुरणा परमाणू प्रमाण तैजस का समयप्रबुद्ध है । बहुरि यातै भी अनंतगुणा परमाणू प्रमारण कार्मारण का समय प्रबद्ध है । इहा 'अनंतेन तेजोद्विकं' इस करि तैजसकार्मारण विषै प्रनतानंत गुणा प्रमाण जानना । बहुरि इहा कोऊ आशंका करै कि जो उत्तरोत्तर अधिके अधिके परमाणू कहे, तो उत्तरोत्तर स्थूलता भी होयगी ? [ ३०३ तहां कहिए है - परं परं सूक्ष्मं भवति कहिए उत्तरोत्तर सूक्ष्म है । श्रदारिक ते वैक्रियिक सूक्ष्म है । वैक्रियिक ते आहारक सूक्ष्म है । आहारक ते तेजस सूक्ष्म है । तैस तैं कार्माण सूक्ष्म है । यद्यपि परमाणू तौ अधिक अधिक हैं, तथापि स्कंध का बंधन में विशेष है । ताते उत्तरोत्तर सूक्ष्म है । जैसे कपास के पिड ते लोह के पिड़ मे अधिकपना होते भी कपास के पिड ते लोह का पिड क्षेत्र थोरा रोक; तैसे जानना । - आगे श्रदारिकादिक शरीरनि का समयप्रबद्ध र वर्गरणा, ते कितने-कितने क्षेत्र विपे रहे ? असा अवगाहना भेदनि को कहै है - गाहणाणि तारणं, समयपबद्वाण वग्गरगाणं च । अंगुलप्रसंखभागा, उवरुवरिमसंखगुणहीणा ॥२४७॥ श्रवगाहनानि तेषां समयप्रवद्धानां वर्गरणानां च । गुलासंख्यभागा, उपर्युपरि असंख्यगुरगहनानि ॥ २४७॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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