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________________ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २४५-२४६ ३७२ ] प्रागै जे ए औदारिकादिक शरीर कहै, तिनिका समयप्रबद्धादिक की सख्या दोय गाथानि करि कहिए है - परमाणू हि अणंतहि, वग्गणसण्णा हु होदि एक्का हु। ताहि अणंतहिं णियमा, समयपबद्धो हवे एक्को ॥२४५॥ परमाणुभिरनंतैः वर्गणासंज्ञा हि भवत्येका हि । ताभिरनंतैनियमात्, समयप्रबद्धो भवेदेकः ॥२४५॥ टीका - सिद्धराशि के अनंतवे भाग पर अभव्यराशि स्यौ अनंतगुणा जैसा जो मध्य अनंतानंत का भेद, तीहि प्रमाण पुद्गल परमाणूनि करि जो एक स्कंध होइ, सो वर्गणा, असा नाम जानना । संख्यात वा असख्यात परमाणूनि करि वर्गणा न हो है । जाते यद्यपि आगे पुद्गल वर्गणा के तेईस भेद कहैगे । तहा अणुवर्गणा, सख्याताणुवर्गणा, असख्याताणुवर्गणा आदि भेद है । तथापि इहा औदारिक आदि शरीरनि का प्रकरण विष आहारवर्गणा वा तैजसवर्गणा वा कार्माणवर्गणा का ही ग्रहण जानना । बहुरि सिद्धनि के अनंतवे भाग वा अभव्यनि ते अनंतगुणी जैसी मध्य अनतानत प्रमाण वर्गणा, तिनि करि एक समयप्रबद्ध हो है । समय विष वा समय करि यह जीव कर्म-नोकर्मरूप पूर्वोक्त प्रमाण वर्गणानि का समूहरूप स्कध, करि सबध करै है । तात याकी समयप्रबद्ध कहिए है । असा वर्गणा का वा समयप्रवद्ध का भेद स्याद्वादमत विष है, अन्यमत विष नाही । यह विशेष नियम शब्द करि जानना। इहा कोऊ प्रश्न कर कि एक ही प्रमाण को सिद्धराशि का अनतवा भाग वा अभव्य राशि ते अनतगुणा असे दोय प्रकार कह्या, सो कौन कारण ? ताको समाधान - कि सिद्धराशि का अनतवा भाग के अनत भेद है। तहां अभव्यराशि ते अनतगुणा जो सिद्धराशि का अनंतवा भाग होइ, सो इहा प्रमाण जानना । असे अल्प-वहुत्व करि तिस प्रमाण का विशेष जानने के अथि दोय प्रकार कह्या है । अन्य किछ प्रयोजन नाही। ताणं समयपबद्धा, सेडिअसंखेज्जभागगुणिदकमा। गंतेण य तेजदुगा, परं परं होदि सुहमं खु ॥२४६॥ .
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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