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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ] [ २३ वर्णन है । बहुरि मतिज्ञान का वर्णन विषै याके नामांतर का, पर इंद्रिय मन ते उपजने का अर तहा अवग्रहादि होने का, अर व्यंजन- अर्थ के स्वरूप का, अर व्यंजन विष नेत्र, मन वा ईहादिक न पाइए ताका, अर पहले दर्शन होइ पीछे अवग्रहादि होने के क्रम का अर अवग्रहादिकनि के स्वरूप का, अर अर्थ- व्यंजन के विषयभूत बहु, बहुविध आदि बारह भेदनिका, तहां अनिसृति विषै च्यारि प्रकार परोक्ष प्रमाण गर्भितपना आदि का, अर मतिज्ञान के एक च्यारि, चौबीस, अट्ठाईस अर इनते बारह गुणे भेदन का वर्णन है । बहुरि श्रुतज्ञान का वर्णन विषै श्रुतज्ञान का लक्षण निरुक्ति आदि का अर अक्षर अनक्षर रूप श्रुतज्ञान के उदाहरण वा भेद वा प्रमारण का वर्णन है । बहुरि भाव श्रुतज्ञान अपेक्षा बीस भेदनि का वर्णन है । तहां पहिला जघन्यरूप पर्याय ज्ञान का वर्णन विषै ताके स्वरूप का, अर तिसका आवरण जैसे उदय हो है ताका, अर यहु जाकै हो है ताका, अर याका दूसरा नाम लब्धि अक्षर है, ताका वर्णन है । अर पर्यायसमास ज्ञान का वर्णन विषे षट्स्थानपतित वृद्धि का वर्णन है । तहा जघन्य ज्ञान के विभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण कहि । अर अनंतादिक का प्रमाण अर अनंत भागादिक की सहनानी कहि, जैसे अनंतभागादिक षट्स्थानपतित वृद्धि हो है, ताके क्रम का यंत्र द्वार ते वर्णन करि अनंत भागादि वृद्धिरूप स्थाननि विषै अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण ल्यावने को प्रक्षेपक आदि का विधान, अर तहा प्रसंग पाइ एक बार, दोय बार, आदि संकलन धन ल्यावने का विधान, अर साधिक जघन्य जहां दूरगा हो है, ताका विधान, अर पर्याय समास विषै अनतभाग आदि वृद्धि होने का प्रमाण इत्यादि विशेष वर्णन है । बहुरि अक्षर आदि अठारह भेदनि का क्रम तैं वर्णन है । तहां अर्थाक्षर के स्वरूप का, अर तीन प्रकार अक्षरनि का अर शास्त्र के विषयभूत भावनि के प्रमाण का, अर तीन प्रकार पदनि का अर चौदह पूर्वनि विष वस्तु वा प्राभृत नामा अधिकारनि के प्रमाण का इत्यादि वर्णन है । बहुरि बीस भेदनि विषे अक्षर, अनक्षर श्रुतज्ञान के अठारह, दोय भेदनि का अर पर्यायज्ञानादि की निरुक्ति लिए स्वरूप का वर्णन है । बहुरि द्रव्यश्रुत का वर्णन विषे द्वादशाग के पदनि की अर प्रकीर्णक के अक्षरनि की संख्यानि का, बहुरि चौसठ मूल अक्षरनि की प्रक्रिया का अर अपुनरुक्त सर्व अक्षरनि का प्रमाण वा अक्षरनि विषै प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भंगनि करि तिस प्रमारण ल्यावने का विधान अर सर्व श्रुत के अक्षरनि का प्रमाण वा अक्षरनि विषै अंगनि के पद अर प्रकीर्णकनि के अक्षरनि के प्रमाण ल्यावने का विधान इत्यादि वर्णन है । बहुरि आचारांग आदि ग्यारह अंग, अर दृष्टिवाद अंग के पांच भेद, तिनमै परिकर्म के पाच
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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