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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] | २६६ असे जे नरक कहिए पापकर्म, ताका अपत्य कहिए तीहि का उदय ते निपजे जे नारक तिनकी जो गति, सो नारक गति जाननी । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनि विषै वा परस्पर त कहिए प्रीतिरूप नाही ते नरत, तिनकी जो गति सो नरतगति जाननी । निर्गत कहिए गया है अय कहिए पुण्यकर्म, जिनिते असे जे निरय, तिनिकी जो गति सो निरय गति जाननी । असे निरुक्ति करि नारकगति का लक्षण कह्या । आगे तिर्यचगति का स्वरूप कहै है 7 तिरियंति कुडिलभावं, सुविउलसंण्ण रिगगिट्ठिमण्णाणा । अच्चंत पावबहुला, तह्मा तेरिच्छ्या भरिया' ॥ १४८ ॥ तिरोचंति कुटिलभावं, सुविवृतसंज्ञा निकृष्टमज्ञाना. । अत्यंतपापबहुलास्तस्मात्तैरश्चिका भरिणताः ॥ १४८॥ टीका - जातै जो जीव सुविवृतसंज्ञा : कहिए प्रकट है आहार ने आदि देकरि सज्ञा जिनके से है । बहुरि प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या की विशुद्धता इत्यादिक करि हीन है, तातै निकृष्ट है । बहुरि हेयोपादेय का ज्ञान रहित है, ताते अज्ञान है । बहुरि नित्यनिगोद की अपेक्षा अत्यत पाप की है बहुलता जिनिके जैसे है, तातै तिरोभाव जो कुटिलभाव, मायारूप परिणाम ताहि श्रंचंति कहिए प्राप्त होइ, ते तिर्यच कहे है । बहुरि तिर्यच ही तैरश्च कहिए । इहा स्वार्थ विषै अण् प्रत्यय का विधान हो है । असे जो तिर्यक् पर्याय, सोही तिर्यग्गति है, असा कया है । आगे मनुष्य गति का स्वरूप कहै है - ― मण्णंति जदो रिगच्चं मरणेरण रिगउरणा मणुक्कडा जह्मा । मण्णुव्वा य सव्वे, भणिदा ॥ १४६ ॥ माणुसा तह्मा मन्यते यतो नित्यं मनसा निपुरणा मनसोत्कटा यस्मात् । मनूद्भवाश्च सर्वे, तस्मात्ते मानुषा भरिणताः ॥१४९॥ टीका - जाते जे जीव नित्य ही मन्यते कहिए हेयोपादेय के विशेष को जाने है । अथवा मनसा निपुणाः कहिए अनेक शिल्पी आदि कलानि विषै प्रवीण है । अथवा १. पटखडागम - घवला पुस्तक १, पृष्ठ २०३, गाथा १२६ २. पटखडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ २०४, गाथा १३०
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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