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________________ २६८ ] गत्युदयजपर्यायः, चतुर्गतिगमनस्य हेतुर्वा हि गतिः । नारकतिर्यग्मानुषदेवगतिरिति च भवेत् चतुर्धा ॥ १४६॥ गम्यते कहिये गमन करिए, सो गति है । [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १४६ इहां तर्क - जो ऐसे कहें गमन क्रियारूप परिणया जीव को पावने योग्य द्रव्यादिक को भी गति कहना संभवे । तहां समाधान - जो ऐसे नाही है, जो गतिनामा नामकर्म के उदय तं जो जीव के पर्याय उत्पन्न होड़, तिसही कौं गति कहिए । सो गति च्यारि प्रकार १. नाक गति २. तिर्यंच गति ३. मनुष्यगति ४. देव गति ए च्यारि गति हैं । या नारक गति को निर्देश कर हैं - - ण रमंति जदो णिच्चं, दव्वे खेत्ते य काल - भावे य । अण्णोहिय जह्मा, तह्मा ते खारया भरिया । । १ १४७ ॥ नरमंते यतो नित्यं द्रव्य क्षेत्रे च कालभावे च । अन्योन्यैश्व यस्मात्तस्मात्ते नारता (का) भरिणताः ॥ १४७ ॥ टीका - जा कारण ते जे जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव विपे अथवा परस्पर में रमे नाही - जहां क्रीडा न करें, तहा नरक संवत्री ग्रन्न-पानादिक वस्तु, सो द्रव्य कहिए । बहुरि तहांकी पृथ्वी सो क्षेत्र कहिए । बहुरि तिस गति संबंधी प्रथम समय तें लगाइ अपनी आयु पर्यंत जो काल, सो काल कहिए । तिनि जीवनी के चैतन्यरूप परिणाम, सी भाव कहिए । इनि च्यारोंनि विषै जे कहूं रति न मानें । वहुरि अन्य भव संबंधी बंर करि इस भव में उपजे कोवादिक, तिनिरि नवीन - पुराणे नारकी परस्पर रमे नाहि है 'रति कहिए प्रीतिरूप कब ही तातें 'न रताः' कहिए नरत, तेई 'नारत' जानने । जातें स्वार्थ विषै ऋण प्रत्यय का विवान है, तिनकी जो गति, सो नारतगति जानना । वा नरकविपै उपजे ते नारक, तिनिकी जो गति, सो नारक गति जाननी । अथवा हिमादित्र ग्राचरण विपं निरता कहिए प्रवत, असे जो निरत, तिनकी जो गति, सो निम्नगति जाननी ी, तिनिर्को कायति कहिए पीडे दुःख देइ, ५॥ नरह
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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