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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ] [२१ जीवनि के आकार का, अर काय सहित, काय रहित जीवनि का वर्णन है। बहुरि अग्नि, पृथ्वी, अप्, वात, प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित प्रत्येक-साधारण वनस्पती जीवनि की, अर तिनविषै सूक्ष्म-बादर जीवनि की, अर तिनविर्ष भी पर्याप्त-अपर्याप्त जीवनि की संख्या का वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ पृथ्वी आदि जीवनि की उत्कृष्ट आयु का वर्णन है । बहुरि त्रस जीवनि की, अर तिनविषै पर्याप्त-अपर्याप्त जीवनि की संख्या का वर्णन है । बहुरि बादर अग्निकायिक आदि की संख्या का विशेष निर्णय करने के अर्थि तिनके अर्धच्छेदादिक का, अर प्रसंग पाइ "दिण्णछेदेणवहिद" इत्यादिक करणसूत्र का वर्णन है । बहुरि नवमां योगमार्गणा अधिकार विष - योग के सामान्य लक्षण का पर सत्य आदि च्यारि-च्यारि प्रकार मन, वचन योग का वर्णन है। तहां सत्य वचन का विशेष जानने को दश प्रकार सत्य का, अर अनुभय वचन का विशेष जानने को आमंत्रणी आदि भाषानि का, अर सत्यादिक भेद होने के कारण का, अर केवली के मन, वचन योग संभवने का अर द्रव्य मन के आकार का इत्यादि विशेष वर्णन है। बहुरि काय योग के सात भेदनि का वर्णन है। तहां औदारिकादिकनि के निरुक्ति पूर्वक लक्षण का, अर मिश्रयोग होने के विधान का, अर आहारक शरीर होने के विशेष का, अर कारिणयोग के काल का विशेष वर्णन है । बहुरि युगपत् योगनि की प्रवृत्ति होने का विधान वर्णन है । पर योग रहित आत्मा का वर्णन है । बहुरि पंच शरीरनि विर्षे कर्म-नोकर्म भेद का, अर पंच शरीरनि की वर्गणा वा समय प्रबद्ध विर्ष परमाणूनि का प्रमाण वा क्रम ते सूक्ष्मपना वा तिनकी अवगाहना का वर्णन है। बहुरि विस्रसोपचय का स्वरूप वा तिनकी परमाणु नि के प्रमाण का वर्णन है। बहुरि कर्म-नोकर्म का उत्कृष्ट संचय होने का काल वा सामग्री का वर्णन है । बहुरि औदारिक आदि पंच शरीरनि का द्रव्य तौ समय प्रबद्धमात्र कहि । तिनकी उत्कृष्ट स्थिति, अर तहाँ सभवती गुणहानि, नाना गुणहानि, अन्योन्याभ्यस्तराशि, दो गुणहानि का स्वरूप प्रमाण कहि, करणसूत्रादिक ते तहा चयादिक का प्रमाण ल्याय समय-समय संबंधी निषेकनि का प्रमाण कहि, एक समय विष केते परमाण) उद्यरूप होइ निर्जरै, केते सत्ता विष अवशेष रहै, ताके जानने को अकसंदृष्टि की अपेक्षा लिये त्रिकोण यत्र का कथन है । बहुरि वक्रियिकादिकनि का उत्कृष्ट सचय कौनकै कैसै होइ सो वर्णन है । बहरि योगमार्गणा विष जीवनि की संख्या का वर्णन विष वैक्रियिक शक्ति करि संयुक्त बादर पर्याप्त अग्निकायिक, वातकायिक पर पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यच, मनुष्यनि के प्रमाण का, अर भोगभूमियां आदि
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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