SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका] । २८७ प्रथमोपशमसहितायाः, विरताविरतेश्चतुर्दश दिवसाः । विरतेः पंचदश, विरहितकालस्तु बोद्धव्यः ॥ १४५ ।। टीका-विरह काल कहिए उत्कृष्ट अंतर, सो प्रथमोपशम सम्यक्त्व करि संयुक्त जे विरताविरत पंचम गुणस्थानवी जीव, तिनिका चौदह दिन का जानना । बहुरि तिस प्रथमोपशम सम्यक्त्व सयुक्त षष्टमादि गुणस्थानवर्ती, तिनिका पंद्रह दिन जानना । वा दूसरा सिद्धान्त की अपेक्षा करि चौवीस दिन जानना । अस नाना जीव अपेक्षा अंतर कह्या । वहरि इनि मार्गणानि का एक जीव अपेक्षा अन्तर अन्य ग्रन्थ के अनुसारि जानना। यहा प्रसंग पाइ कार्यकारी जानि, तत्त्वार्थसूत्र की टीका के अनुसारि काल अन्तर का कथन करिए है। तहां प्रथम काल का वर्णन दोय प्रकार - नाना जीव अपेक्षा पर एक जीव अपेक्षा । तहां विवक्षित गुणस्थाननि का वा मार्गणास्थाननि विष संभवते गुणस्थाननि का सर्व जीवनि विष कोई जीव के जेता काल सद्भाव पाइए, सो नाना जीव अपेक्षा काल जानाना । अर तिनही का विवक्षित एक जीव के जेते काल सद्भाव पाइए, सो एक जीव अपेक्षा काल जानना । तिनिविष प्रथम नाना जीव अपेक्षा काल कहिए है, सो सामान्य-विशेप करि दोय प्रकार । तहां गुणस्थाननि विपै कहिए सो सामान्य अर मार्गगा विप कहिए गो विशेप जानना। तहां सामान्य करि मिश्यादृष्टि, असयत, प्रमत्त, अप्रमत्त, नयोग केवलनि या सर्व काल है । इनिका कवहू अभाव होता नाही। वहरि सानादन का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट पल्य का असंन्यातवा भाग । बहरि मिश्र का जघन्य अन्तर्मनं, उत्कृप्ट पल्य का असंम्यातवां भाग । वहरि च्यारो उपगम अंगी बानो का जघन्य एक समय उत्कृष्ट अन्तमुहर्त । उहां जघन्य एक ममय मग्गा अपेक्षा गाया है. । बरि च्यारों क्षपकगीवाले पर प्रयोग केवलीनि का जघन्य या उतकट अन्तम: माग काल है।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy