SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ १४७ असंख्यात भाग, संख्यातभाग, संख्यातगुण, असंख्यातगुण, अनंतगुण वृद्धिरूप षट्स्थानपतित वृद्धि सभव है । तहां तिस अनुक्रम के अनुसारि एक अधिक जो सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग, ताका घन करि ताही का वर्ग को गुणिए । भावार्थ ऐसा - पांच जायगा मांडि परस्पर गुणिये जो प्रमाण आवै, तितने विशुद्धि परिणाम विषै एक बार पट्स्थानपतित वृद्धि हो है । ऐसे क्रम तै प्रथम परिणाम ते लगाइ, इतने इतने परिणाम भये पीछे एक-एक बार षट्स्थान वृद्धि पूर्ण होते असंख्यात लोकमात्र वार षट्स्थानपतित वृद्धि भए, तिस प्रथम खंड के सव परिणामनि की सख्या पूर्ण होइ है । याते असख्यात लोकमात्र षट्स्थानपतित वृद्धि करि वर्धमान प्रथम खड के परिणाम है । वहुरि तैसे ही द्वितीय समय के प्रथम खंड का परिणाम एक अनुकृप्टि चय करि अधिक है, ते जघन्य, मध्यम, उत्कृष्टभेद लिये है । सो ए भी पूर्वोक्त प्रकार असख्यात लोकमात्र षट्स्थानपतित वृद्धि करि वर्धमान है । भावार्थ एक अधिक सूच्यंगुल के असंख्यातवा भाग का घन करि गुणित तिस ही का वर्गमात्र परिणामनि विषै जो एक बार षट्स्थान होइ, तो अनुकृष्टि चय प्रमाण परिणामनि विषे केती बार षट्स्थान होइ ? ऐसे त्रैराशिक किये जितने पाव, तितनी बार अधिक पदस्थानपतित वृद्धि प्रथम समय के प्रथम खण्ड द्वितीय समय के प्रथम खण्ड विषै संभव है । ऐसे ही तृतीयादिक प्रत पर्यन्त समयनि के प्रथम - प्रथम खड के परिणाम एक-एक अनुकृष्टि चय करि अधिक है । बहुरि तैसे ही प्रथमादि समयनि के अपने-अपने प्रथम खण्ड ने द्वितीयादि खण्डनि के परिणाम भी क्रम ते एक-एक चय अधिक है । तहा यथासम्भव षट्स्थानपतित वृद्धि जेती वार होइ, तिनका प्रमाण जानना । अथ तिन खण्डनि के विशुद्धता का अविभागप्रतिच्छेदनि की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहिये है | प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड का जघन्य परिणाम की विशुद्धता अन्य सर्व तै स्तोक है । तथापि जीव राशि का जो प्रमाण, तातै अनतगुणा अविभागप्रतिच्छेदनि के समूह को धरे है । बहुरि यातै तिस ही प्रथम समय का प्रथम खण्ड का उत्कृष्ट परिणाम की विशुद्धता अनतगुणी है । बहुरि ताते द्वितीय खण्ड का जघन्य परिणाम की विशुद्धता अनतगुणी है । तातै तिस हि का उत्कृष्ट परिणाम की विशुद्धता अनंतगुणी है । ऐसे ही क्रम तै तृतीयादि खण्डनि विषे भी जघन्य,
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy